Vrindavan Ras Charcha

श्री हित किशोरी शरण बाबाजी (सूरदास बाबा) – वृन्दावन

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श्री हित किशोरीशरण बाबाजी (सूरदास बाबा) — वृन्दावन की करुणा-प्रतिमा

“भैया! मेरे मन में तो ऐसी भावना उठती है कि सारा संसार सुखी हो — चाहे श्रीराधाजी मुझे ही समस्त दुख दे दें। अगर मेरा बस चले, तो समस्त जगत का दुख अपनी छाती पर धर कर मैं अकेला सह लूं!”
— यह वाणी थी उस संत की, जिनकी दृष्टि भले ही भौतिक जगत को न देख सकती थी, किंतु जिनकी अंतरदृष्टि समस्त जीवों के अंतःकरण को पढ़ सकती थी। वही थे वृन्दावन के महापुरुष, करुणा और कृपा के मूर्तिमान स्वरूप — श्रीहितकिशोरीशरण बाबा, जिन्हें प्रेम से सूरदास बाबा भी कहा जाता है।

छरहरे बदन, मझोला कद, बाहर से साधारण प्रतीत होते हुए भी भीतर से अलौकिक सामर्थ्य के स्वामी — ऐसे थे बाबा। उनका निवास वृन्दावन के दुसायत मोहल्ले में स्थित श्यामाकुञ्ज आश्रम था। वहाँ वे दीन-दुखियों, भक्तों, संन्यासियों, बच्चों, वृद्धों, व्रजवासियों — सभी के लिए कल्पवृक्ष के समान आश्रय बने हुए थे।

दरवाज़ा जो कभी बंद न हुआ

श्यामाकुञ्ज का द्वार सदैव खुला रहता — न कोई भेदभाव, न कोई शर्त। जो भी आता, बाबा उसकी बात ध्यान से सुनते, उसकी व्यथा हरने का भरसक प्रयास करते और उसे अपने अमृतमय वचनों से सांत्वना देते।

एक दिन शीतकाल की ठिठुरती सुबह थी। बाबा कुछ भक्तों के साथ बरामदे में अंगीठी ताप रहे थे। तभी एक भक्त ने प्रेमपूर्वक ऊनी बंडी (गर्म वस्त्र) भेंट की। बाबा ने स्नेहपूर्वक उसे पहन लिया और कहा —
“बंडी बड़ी मलूक (सुंदर) है, ठंड कुछ कम लग रही है।”

उसी क्षण एक गरीब व्रजवासी काँपता हुआ वहाँ आया और बोला —
“बाबा, बहुत ठंड है, मेरे पास पहनने को कुछ नहीं है!”

बाबा ने तुरंत वह बंडी उतारकर उसके हाथ में देते हुए मुस्कराकर कहा —
“ले भैया, तेरे लिए ही आज बनकर आई है!”

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कृपा की असीम दृष्टि

एक दिन एक ग्वाले की तीन भैंसें कहीं चली गईं। बहुत खोजने के बाद भी वे नहीं मिलीं। वह भागता हुआ बाबा के पास पहुँचा, चरणों में गिरकर कुछ कहने ही वाला था कि बाबा ने उसकी भेंट लौटा दी और बोले —
“जाको अपने पास रख। भैंस मिल जायें तो अखंड कीर्तन करवा देना।”

ग्वाले को आश्चर्य हुआ — बिना बोले बाबा को सब कैसे पता चल गया! वह अश्रुपूरित नेत्रों से उनके चरण पकड़कर बोला —
“बाबा! कृपा करिए, वे मेरी सारी संपत्ति हैं। अगर न मिलीं तो मेरे बालक भूखे मर जायेंगे।”

बाबा का करुणा-भरा हृदय द्रवित हो गया। उन्होंने पूर्व दिशा की ओर देखा और बोले —
“यमुना पार पल्ली की ओर दोपहर बाद जाना, तेरी भैंसें एक पेड़ के नीचे बैठी मिलेंगी।”

श्रीहितकिशोरीशरण बाबाजी (सूरदास बाबा) — प्रेम, कृपा और चमत्कार के प्रतिरूप

बाबा के वचन कभी निष्फल नहीं होते। जिन ग्वाले की भैंसें खो गई थीं, जब वह यमुनापार बाबा द्वारा बताए गए स्थान पर पहुँचा, तो उसने देखा — सचमुच उसकी तीनों भैंसें वहीं वृक्ष के नीचे बैठी थीं। हर्ष और श्रद्धा से उसका मन भर आया। उसने लौटकर न केवल अखंड कीर्तन का आयोजन किया, बल्कि अपने समस्त परिवार सहित श्रीबाबाजी से दीक्षा लेकर उनका अनन्य शिष्य बन गया।

“तेरो छोरा पंगत में प्रसाद पामतौ मिल जायगा”

एक दिन मिर्ज़ापुर से एक दुखी दम्पति, जिनका पुत्र कहीं खो गया था, बाबा की शरण में आये। चरणों में दण्डवत् कर बोले —
“महाराज! हमारा बेटा खो गया है। हम अत्यंत दुखी हैं। अब आपके श्रीचरणों में ही आश्रय लेने आए हैं।”

बाबा कुछ क्षण ध्यानमग्न रहे, फिर बोले —
“भैया! अपने छोरे को ढूँढन का कष्ट अब न उठाओ। आज यहाँ भण्डारा है। तेरो छोरा पंगत में प्रसाद पामतौ मिल जायगा।”

वह दम्पति आश्चर्य और आशा में पंगत (भोजन वितरण) की प्रतीक्षा करने लगे। जब पंगत आरंभ हुई, वे दोनों चारों ओर दृष्टि घुमाने लगे — और देखो! उनका पुत्र वहीं बैठा प्रसाद ग्रहण कर रहा था!

आनन्द और आह्लाद से भरकर वे दौड़ते हुए उसे गले लगा लाए। पुत्र को बाबा के चरणों में ले जाकर प्रणाम कराया। बाबा ने स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरा और कहा —
“अब माता-पिता के साथ घर जाओ।”

बाबा के हाथ का स्पर्श पाते ही उस बालक का मन परिवर्तित हो गया — वह जो अब तक घर लौटने से हठ करता था, अब शांति और प्रेम से अपने माता-पिता के संग लौटने को राजी हो गया।

प्रसन्न होकर दम्पति ने बाबा को दो सौ रुपये भेंट में देने चाहे। किंतु बाबा ने वह भेंट लौटा दी और कहा —
“इसमें तीन सौ और जोड़कर, अपने गाँव के हनुमानजी के मन्दिर की मरम्मत करवा देना।”

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“आठवें दिन पत्र आ जायगा” — भविष्यदर्शी कृपानिधि

बाबाजी के कृपापात्र पण्डित मंगतराम वशिष्ठ जी के सुपुत्र श्रीभूपेन्द्रकुमार शर्मा डॉक्टरी पढ़ने हेतु जर्मनी गए हुए थे। कई दिनों से उनका कोई पत्र न आने पर मंगतराम जी अत्यंत चिंतित थे। उन्होंने यह बात बाबा को बताई।

बाबा ने अपनी दिव्य दृष्टि से सारी स्थिति जान ली और कहा —
“भूपेन्द्र के पेट में फोड़ा हुआ था, आपरेशन बहुत ज़रूरी था। कई जर्मन डॉक्टरों ने मिलकर कठिन ऑपरेशन किया। अब वह ठीक है, किंतु बहुत कमजोर हो गया है। आठवें दिन तक उसका पत्र आ जाएगा। चिन्ता न करें।”

ठीक आठवें दिन पत्र आया — उसमें वही सब लिखा था जो बाबा ने पहले ही कह दिया था। यह सब देखकर मंगतराम जी की आंखें नम हो गईं — उन्हें यह भान हो गया कि वे वास्तव में एक दिव्यदर्शी महापुरुष की छत्रछाया में हैं।

बाबा किशोरीशरणजी की करुणा, योगशक्ति और प्रारंभिक जीवन

निठारी ग्राम का चूहा-विनाश

निठारी ग्राम में एक समय चूहों का अत्यधिक आतंक फैल गया था। ये चूहे खेतों की खड़ी फसलें काट डालते और किसान निरंतर हानि झेलते। ग्रामवासियों ने अनेक उपाय किए — दवाइयाँ, फंदे, और रासायनिक प्रयोग, किंतु कोई समाधान नहीं हुआ।

अंततः वे श्रीबाबाजी की शरण में आए। बाबा ने उन्हें आदेश दिया —
“गणेशजी की पूजा के साथ एक विस्तृत अनु‍ष्ठान करो।”

बाबा स्वयं भी ग्राम में रहे। अनुष्ठान के दिनों में वे मौन व्रत धारण कर, गहन जाप और चिंतन में लीन रहते। कई दिनों तक जाप, पाठ और पूजा विधिपूर्वक चलती रही — और जैसे ही अनुष्ठान समाप्त हुआ, समस्त चूहे रहस्यमयी ढंग से वहाँ से लुप्त हो गए। ग्रामवासियों ने इसे श्रीबाबाजी की अनंत कृपा का फल माना।

सिद्धयोगी बाबा — यौगिक चिकित्सा की विलक्षण घटना

बाबा एक सिद्ध योगी भी थे। वे अपने शरीर में उत्पन्न किसी भी रोग का उपचार स्वयं यौगिक क्रियाओं द्वारा कर लेते। एक बार ऋषिकेश में बाबा अस्वस्थ हो गए। डॉक्टरों ने गंभीरता से बताया —
“फेफड़ा गल गया है, इसे ऑपरेशन द्वारा निकालना होगा।”

अगले दिन सुबह बाबा अपने आसन पर बैठे, और कुछ समय यौगिक क्रिया के बाद खाँसकर अपने मुख से वह सड़ा हुआ फेफड़ा स्वयं बाहर निकाल दिया। वह एक रबर-जैसा नरम और काला अवयव था। पास बैठे स्वतन्त्रता सेनानी श्रीललिताप्रसाद जी को दिखाते हुए बोले —
“देखो बाबूजी! डॉक्टर जिस अंग को निकालने की बात कर रहे थे, वह तो ऐसे अपने आप निकल आया।”

एक साथ दो स्थानों पर कीर्तन

बाबा की योगशक्ति की चर्चा तिलपत और भोगल ग्रामों में विशेष रूप से होती है। एक दिन, उन दोनों स्थानों पर एक ही समय पर कीर्तन हुआ — और चमत्कार यह कि बाबा दोनों ही स्थानों के कीर्तन में स्वयं उपस्थित रहे! यह देखकर श्रद्धालुजन चकित रह गए। अनेक लोगों ने साक्षात देखा कि बाबा दोनों कीर्तन मंडलों में अलग-अलग समय नहीं, एक ही समय पर बैठे थे। यह उनकी योगमाया का अद्भुत चमत्कार था।

वेदवेदांत के मर्मज्ञ — विद्या और प्रकाशन में रुचि

बाबा न केवल एक संत और योगी थे, अपितु एक प्रखर विद्वान भी थे। यह जानना कठिन है कि उन्होंने यह गहन ज्ञान कब और कैसे अर्जित किया — परंतु वे वेद, उपनिषद, पुराण, और धर्मशास्त्रों के गूढ़ मर्मज्ञ थे। उन्हें धर्म-ग्रंथों के प्रकाशन में भी अत्यधिक रुचि थी।

उनके द्वारा प्रकाशित और वितरित ग्रंथों में प्रमुख हैं:

  • रसकुल्या टीका — जो ओद्दिलाल द्वारा रचित राधासुधा-निधि पर आधारित है।
  • श्रीनागरीदासजी की वाणी

इन ग्रंथों का उन्होंने निःशुल्क वितरण किया — क्योंकि उनका उद्देश्य लाभ नहीं, लोककल्याण और भक्ति का विस्तार था।

बाल्यकाल और वैराग्य की ओर प्रथम कदम

बाबा किशोरीशरणजी का जन्म गढ़वाल के एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में हुआ। दुर्भाग्यवश, शैशव अवस्था में ही माता-पिता का देहांत हो गया। यह संसार कितना क्षणभंगुर और असत्य है — इस सत्य का अनुभव उन्हें बहुत छोटी उम्र में हो गया।

उन्होंने अनुभव किया कि:

“संसार के संबंध मिथ्या हैं, इसमें न तो स्थायी सुख है और न शांति — इनकी खोज मृगमरीचिका के समान है।”

इस गहन वैराग्य भाव से प्रेरित होकर वे घर से निकल पड़े, शाश्वत सत्य की खोज में। हिमालय की ओर उनके कदम बढ़ चले — और गंगोत्री के समीप आनन्दगिरि नामक एक संन्यासी से उनकी भेंट हुई…

बाबा किशोरीशरणजी का वैष्णव दीक्षा पथ और परमार्थमयी सेवा

ज्ञान से रस की ओर — जब गुफा मौन को चुभने लगी

गंगोत्री के निकट आनन्दगिरिजी से संन्यास लेने के पश्चात् बाबा एक गुफा में साधना में लीन हो गए। ध्यान, धारणा, मौन और विरक्ति — यही उनका जीवन बन गया। परंतु रसमयी आत्मा कब तक निर्जीव वैराग्य को सह सके?

“शुष्क तृण को ओखली में कूटने जैसा अनुभव होने लगा।”

बाहर भी मौन था, भीतर भी सूना। आध्यात्मिक निर्वात उनके हृदय को सालने लगा।

श्रीराधा-कृष्ण की ओर मन का झुकाव

उसी समय उनके जीवन में परशुरामदास नामक एक वैष्णव संत का संग प्राप्त हुआ — और यहीं से उनके जीवन की दिशा बदल गई। परशुरामदासजी के संग से उनका मन वृन्दावन विपिन, मोरपंख धारी श्रीकृष्ण, रासबिहारी ठाकुरजी और प्राणवल्लभा श्रीराधाजी के माधुर्य की ओर झुकने लगा।

स्मरण करते-करते वे वृन्दावन की ओर अग्रसर हुए।

वैष्णव दीक्षा और अष्टयाम सेवा

वृन्दावन पहुँचकर उन्होंने भजनसिद्ध महापुरुष श्रीपरमानन्ददासजी से वैष्णव दीक्षा ली। दोसायत स्थित परमानन्दजी के आश्रम में रहकर बाबा ने श्रीश्यामवल्लभजी की अष्टयाम सेवा में भाग लिया। गुरुदेव की निकुञ्ज-प्राप्ति के पश्चात् उन्होंने उस स्थान का विस्तार कर उसे “श्यामाकुंज” के रूप में प्रसिद्ध किया — जो आज भी संतों और भक्तों की शरणस्थली बना हुआ है।

“नामे रुचि, जीवे दया” — प्रेम और परमार्थ का संत

बाबा एक “नाम-निष्ठ संत” थे। किंतु महाप्रभु श्रीचैतन्य के सिद्धांत “नामे रुचि, जीवे दया” को आत्मसात करते हुए, वे भीतर से तो निरंतर नामजप में लीन रहते, किंतु बाहर से लोकहित, समाजसेवा और परमार्थ के कार्यों में पूर्ण रूप से रत रहते।

जहाँ भी जाते, प्रेमीजन उन्हें भेंट देते। वे प्रेम से उसे अपनी बगलबंदी में रख लेते और जैसे ही पर्याप्त हो जाती, वहीं के किसी पुण्य कार्य में उसे समर्पित कर देते।

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मंदिर, धर्मशाला, प्याऊ और अन्नक्षेत्र — परोपकार की जीवंत मूर्तियाँ

उनके परोपकार का प्रभाव आज भी वृन्दावन और उसके पार्श्ववर्ती ग्रामों में दिखता है। बाबा किशोरीशरणजी के द्वारा बनाए गए धर्मस्थल और सेवा केंद्र आज भी जीवंत स्मृतियाँ हैं:

  • वृन्दावन
  • तिलपत
  • पल्ला
  • मवई
  • महावतपुर
  • बल्लभगढ़
  • भोगल
  • निठर्रा
  • रायपुर
  • व्रजघाट
  • सूंगरपुर
  • ऋषिकेश

इन सभी स्थानों में उनके द्वारा मंदिर, धर्मशालाएँ, अन्नक्षेत्र, प्याऊ आदि की स्थापना हुई।

वैराग्य की पराकाष्ठा — स्वयं के लिए कुछ नहीं

बाबा के पास असीम साधन थे, पर उन्होंने कभी उन्हें स्वयं के लिए उपयोग नहीं किया। उनके लिए सब कुछ “श्रीजी की सेवा” था। जो कुछ आता, वही भेंट बनकर ठाकुरजी को समर्पित हो जाता।

एक दिन बिहार के एक महंत, जो कभी बहुत प्रभावशाली थे पर अब दरिद्रता में जीवन बिता रहे थे, बाबा के पास आए। कारण जानने की इच्छा प्रकट की।

बाबा ने उन्हें देखकर सहज भाव से कहा —
“भइया! भले आये। तुमने श्रीजी की संपत्ति का उपयोग अपने सुख के लिए किया — इसीलिए तुम्हारा प्रभाव चला गया।”

“शरीर सेवा के लिए है, भोग के लिए नहीं” — श्रीहितकिशोरीशरण बाबा का करुणा रूप

“साधु का तो केवल सेवा में अधिकार है। यह देह भी प्रभु की संपत्ति है — जब तक वह श्रीजी और उनके जनों की सेवा में लगा रहे, तभी उसका औचित्य है।”

बाबा अक्सर यह बात कहते थे और इस सिद्धांत को अपने जीवन में पूर्ण रूप से जीते थे। वे स्वयं अपने शरीर को कभी स्व-स्वामित्व का नहीं मानते थे — उसे मात्र एक यंत्र, एक सेवा का साधन मानते थे।

उनका करुणा-पूर्ण हृदय कई बार दूसरों के दुःख को स्वयं पर लेकर उन्हें रोगमुक्त कर देता था।

“रसोई तो मैंने तुम्हारे लिए बनवाई है…” — कोसी का करुणा प्रसंग

एक बार कोसी ग्राम में श्रीभार्गव महोदय को अकस्मात् नेत्रों में भयंकर पीड़ा हुई। पूरा परिवार शोकग्रस्त हो गया। उस दिन किसी के मन में अन्न बनाने का भाव भी नहीं रहा।

बाबा उस समय वृन्दावन में थे — परंतु अंतर्यामी बाबा को यह सब सहज ही ज्ञात हो गया। वे उसी समय कोसी के लिए चल पड़े।

जब बाबा अचानक वहाँ पहुँचे, सबके चेहरों पर आशा की रेखा चमक उठी — सब समझ गए कि अब शुभ होगा। बाबा ने आते ही सबसे पहले कहा —
“पहले रसोई बनवाओ!”

रसोई बननी शुरू हुई और जैसे-जैसे प्रसाद तैयार होता गया, भार्गवजी का नेत्रकष्ट भी कम होता गया

परंतु जैसे ही उनका कष्ट गया, बाबा की आंखों में वही पीड़ा प्रकट होने लगी

बिना कुछ कहे-सुने बाबा उठ खड़े हुए और भोगल ग्राम के लिए निकल पड़े। सभी ने आग्रह किया कि अब तो प्रसाद पाकर ही जाएँ, पर बाबा मुस्कराकर बोले —
“यह रसोई मैंने तुम्हारे लिए बनवाई है। मुझे अभी कुछ नहीं चाहिए।”

“मुझे श्रीराधावल्लभ ही नेत्र देंगे”

भोगल ग्राम पहुँचकर बाबा की आंखों की वही स्थिति हो गई जो कोसी में भार्गव साहब की थी। जब यह बात भार्गव जी को ज्ञात हुई, वे व्याकुल होकर भोगल पहुँचे और बाबा के चरण पकड़कर रो पड़े —
“बाबा! मेरा दुःख मुझे वापस दे दो। आपसे यह कष्ट देखा नहीं जाता!”

बाबा ने अत्यंत शांत भाव से कहा —
“मुझे इससे कोई हानि नहीं है। तुम एक गृहस्थ हो, तुम्हारे ऊपर परिवार का भार है। तुम्हारे दुःखी रहने से सबको दुःख होगा। मेरा यह कष्ट थोड़ी देर का है, चला जाएगा।”

फिर भी भार्गव जी ने शांति नहीं मानी और दिल्ली से दो नेत्र विशेषज्ञ डॉक्टरों को बुला लाए।

बाबा उन्हें देखकर बोले —
“इन्हें इनकी फीस दे दो और विदा करो। मेरे नेत्र इन्हें नहीं दिखाने। मेरे नेत्र तो श्रीराधावल्लभ स्वयं ठीक करेंगे।”

और जैसे ही अगली सुबह हुई — श्रीराधावल्लभजी की कृपा से बाबा की आंखें पुनः स्वस्थ हो गईं

यह प्रसंग बताता है कि बाबा न केवल आध्यात्मिक, भाव-प्रेरित संत थे, बल्कि अद्भुत योगबल और आत्मबल से संपन्न दिव्य पुरुष थे, जिनकी सेवा भावना “मैं” और “मेरा” के संकुचित बंधनों से परे थी।

“सबरे जगत् को दुःख अपनी छाती पर धर लऊँ” — करुणा की चरम सीमा

मेरठ की घटना — जब रोग को स्वयं ने ओढ़ लिया

मेरठ के एक वकील साहब का पुत्र एक महीने से अत्यंत गंभीर रोग से पीड़ित था। सारे प्रयास निष्फल हो चुके थे। अंतिम आशा के रूप में वे वृन्दावन आए और बाबा के चरणों में गिरकर प्रार्थना करने लगे। साथ ही, उन्होंने उसी समय बाबा से उनके साथ मेरठ चलने का आग्रह किया।

बाबा, जो कभी किसी दुखी की विनती नहीं टालते थे, सहर्ष चल पड़े।

मेरठ पहुँचकर, मकान की दूसरी मंजिल पर जब उन्होंने उस बालक को देखा — वह मृतप्राय था, अंतिम साँसें चल रही थीं। बाबा कुछ न बोले, बस उसे देखा, फिर नीचे उतरने लगे।

सीढ़ियाँ उतरते हुए उन्होंने कहा —
“मैं इसी समय वृन्दावन लौटूंगा।”

परंतु उसी क्षण बाबा को खून की उल्टी हुई

वकील साहब भयभीत हो गए और बाबा से निवेदन करने लगे कि वे रात वहीं विश्राम करें। किंतु बाबा ने दृढ़ता से कहा —
“नहीं, मुझे अभी वृन्दावन लौटना है।”

बाबा उसी समय वापिस चल पड़े।

और जब अगली सुबह वकील साहब अपने घर लौटे — उनका पुत्र न केवल जीवित था, बल्कि चारपाई से उठकर टहल रहा था! कुछ ही दिनों में वह पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गया।

यह साक्षात् चमत्कार था — लेकिन वास्तविक रहस्य यह था कि बाबा ने उसका रोग अपने ऊपर ले लिया था। तभी उन्हें खून की उल्टी हुई थी। स्वयं बीमार पड़कर, कुछ दिन बाद वह रोग भी उनके शरीर से चला गया।

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“मैं मौत से लड़ने की शक्ति खो बैठा हूँ…”

बाबा के हृदय की परदुःखकातरता  की कोई सीमा नहीं थी। ऐसे न जाने कितने प्रसंग थे, जहाँ उन्होंने दूसरों का दुःख-रोग अपने ऊपर लिया और स्वयं कष्ट सहा। वे कहा करते —

“भैया! मेरी तो यही इच्छा है — सब जगत का दुःख अपनी छाती पर धर लऊँ।”

दूसरों के कष्ट को अपने ऊपर लेते-लेते अंततः वह समय आ गया जब यह दिव्य आत्मा शरीर का परित्याग करने को अग्रसर हुई।

उनका अंतिम समय दिल्ली के होली फैमिली अस्पताल में बीता।

उन्होंने अपने कृपापात्र पण्डित मंगतरामजी से एक दिन कहा —
“इस बार मैंने एक ऐसे अपराधी का अपराध मोल ले लिया है, जिससे मैं अब मौत से लड़ने की अपनी सारी शक्ति ही खो बैठा हूँ।”

यह कथन कोई साधारण वाक्य नहीं था — यह एक ऐसे आत्मा की घोषणा थी, जो अन्य के उद्धार के लिए अपना समर्पण कर चुकी थी।

“नाम के बदले मांगता हूँ तुम्हारे ही कल्याण का मूल्य”

परंतु जैसा पहले भी कहा गया — यह सब तो बाबा का बाह्य रूप था। भीतर से वे सदैव नाम-साधना में रत रहते थे। उनकी सारी लोकसेवा, करुणा, रोगहरण — यह सब नाम और नामी की महिमा को प्रकट करने का माध्यम था।

वे प्रत्येक भिक्षा के बदले, द्रव्य नहीं, नाम-जप की भिक्षा माँगते थे। वे लोगों को यह दृढ़ विश्वास दिलाते कि:

“नाम ही तुम्हारा रक्षक है, हितैषी है, पालक है, और सच्चा उद्धारक भी।”

“नाम ही सब कुछ है” — श्रीहितकिशोरीशरण बाबाजी का अंतिम संदेश

नाम की महिमा — काबुल यात्रा का अनुभव

बाबा एक बार अपने दो साथियों के साथ काबुल यात्रा पर गए। एक दिन प्रातः चार बजे वे तीनों श्रीराधावल्लभलाल के नाम का कीर्तन करते हुए एक दर्शनीय स्थल की ओर जा रहे थे। उनमें से एक के पास चाँदी की थैली थी, जो अचानक रास्ते में फट गई और रुपये धरती पर बिखर गए।

वे रुपये समेट ही रहे थे कि चार डाकू बंदूकें ताने सामने खड़े हो गए और बोले —

“जो कुछ है, छोड़ दो वरना जान से मार देंगे!”

लेकिन बाबा न भयभीत हुए, न विचलित। उन्होंने वही किया जो वे सदा करते थे —
“श्रीराधावल्लभलाल” का नाम जपना प्रारंभ किया।

कुछ ही क्षणों में छः पुलिस के घुड़सवार वहाँ आ पहुँचे और डाकुओं को पकड़कर ले गए।

बाबा कहा करते —

“नाम भगवान है। नाम जहां है, वहाँ भगवान हैं।”

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“सदा मुस्कराते रहो, नाम लेते रहो”

बाबा जीवनभर कहते रहे —

“सदा प्रसन्न रहो। श्यामा-श्याम का चिन्तन करते हुए मुस्कराते रहो। नाम-जप से प्रसन्नता में स्थायित्व आता है, वरना क्षणिक सुख तो संसार भी देता है।”

उनकी राधा नाम में अनन्य निष्ठा थी। वे कहा करते —

“स्वयं श्रीकृष्ण भी यमुनातट के कुञ्ज मंदिर में योगिराज की भांति श्रीराधाजी के चरणकमलों का ध्यान करते हैं, और प्रेमाश्रु बहाते हुए राधा नाम का जप करते हैं—”

कालिंदीतट कुञ्जे मन्दिरगततो योगीन्द्रवन्द्यः सदा।
ज्योतिर्ध्यानपरः सदा जपति यां प्रेमश्रुपूर्णो हरिः॥
(राधासुधानिधि १५)

“रक्षाबंधन के दिन बारात निकलेगी”

जीवनपर्यंत अष्टकाल लीलाओं के चिन्तन में निमग्न रहने वाले बाबा, अंत समय में नित्यलीला प्रवेश का निश्चय कर चुके थे। उन्होंने एक दिन अपने भक्तों से कहा:

“रक्षाबंधन के दिन बारात निकलेगी।”

कोई इस संकेत को न समझ सका।

और जैसे उन्होंने कहा था, श्रावण पूर्णिमा रक्षाबंधन के दिन, संवत् 2036 को — उन्होंने नित्य-लीला में प्रवेश कर लिया।

वास्तव में, “किसी अपराधी का पाप अपने ऊपर लेकर शरीर छोड़ना” — यह केवल एक बहाना था। वे अपना कार्य पूर्ण कर, प्रेमस्वरूप श्रीराधा-नाम में विलीन हो गए।

कीर्तन, सेवा और राधा-प्रेम — उनकी सतत साधना

बाबा कहा करते —

“जो शक्ति मेरे अंदर है, वह मैंने नाम-जप और कीर्तन से प्राप्त की है।”

अतः वे जहाँ भी जाते, नाम-जप, कीर्तन और भंडारे का आयोजन होता। अष्टप्रहर कीर्तन तो उनके साथ सदा जुड़ा रहता। मुस्लिम भक्त भी उनके कीर्तनों में सम्मिलित होकर रस का अनुभव करते।

राधाष्टमी उत्सव — भक्ति का महासागर

बाबा राधाष्टमी का पर्व अत्यंत उत्साह से मनाते थे। उस दिन उनके स्थान पर:

  • सहस्त्रों संतों, गृहस्थों, निर्धनों और भक्तों के लिए भव्य सेवा-प्रसाद की व्यवस्था होती।
  • सबके लिए दरवाजा खुला होता।
  • यदि भंडारे में कमी होती, सेवक घबराते, तो बाबा स्वयं लड्डू, पूरी आदि पर हाथ फेरकर कहते:

“सामान तो बहुत है, चिंता मत करो। भंडारे की जिम्मेदारी मेरी है — पंगत की तुम्हारी। खुले हाथ से परसो!”

भंडारे में कभी कोई कमी न होती।

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शोभायात्रा — प्रेम का पर्व

संध्या को, बाबा अपने स्थान से गाजे-बाजे, चौकियों और भक्तों की विशाल कीर्तन-मंडली के साथ विशाल शोभायात्रा निकालते। उनकी शोभायात्रा में भाग लेने वालों की कीर्तन-ध्वनि से वृन्दावन का आकाश गूंज उठता।

आज भी उनके प्रेमी भक्त राधाष्टमी पर इस उत्सव को उसी श्रद्धा और उल्लास से मनाते हैं — और बाबा की “रस-पूर्ण स्मृति” को जीवंत रखते हैं।

बाबा की संपूर्ण जीवन-गाथा का सार

  • नाम ही उनकी शक्ति थी।
  • करुणा ही उनका स्वभाव था।
  • राधा नाम ही उनका प्राण था।
  • सेवा और त्याग ही उनका धर्म था।
  • और अंततः नित्यलीला ही उनका ध्येय।

🙏 श्रीहितकिशोरीशरण बाबाजी महाराज की पावन स्मृति को कोटिशः वंदन। 🙏
जय जय श्रीराधे!

 

वृन्दावन रास चर्चा

Jai Jai Shree Radhe Shyam!

ब्रज के रसिक संत मानते हैं कि दिव्य आनंद श्रीधाम वृंदावन में है। यह वेबसाइट राधा कृष्ण की भक्ति में इस आनंद और ब्रज धाम की पवित्रता की महिमा साझा करती है|

जीवनी
विशेष

Rasik Triveni

वाणी जी