श्री छबीलदास जी का जन्म देववन के एक तमोरी परिवार में हुआ, लेकिन उनके जीवन की कहानी केवल जन्म से नहीं, बल्कि उनके अनन्य प्रेम और भक्ति से लिखी गई थी। ये बाल्यकाल से ही गोस्वामी श्रीहित हरिवंशजी के अभिन्न मित्र थे। जब हरिवंशजी मात्र सात वर्ष के थे, तो उन्होंने एक कुएँ से श्री नवरंगी लाल जी का प्राकट्य किया, और वहीं, उनके साथ श्रीराधाजी की गद्दी स्थापित कर अष्टयाम सेवा की शुरुआत की। छबीलदासजी ने इस अद्भुत लीला को न केवल देखा, बल्कि अपने हृदय में इसे सदैव के लिए बसा लिया।
हर दिन, छबीलदास जी अपने प्रेम की माला में पिरोकर पान की सेवा श्रीरंगीलालजी महाराज को अर्पित करते। यह सेवा कोई साधारण कर्तव्य नहीं, बल्कि उनके हृदय की गहराई से निकली प्रेमाभक्ति का अर्पण थी। लेकिन जीवन की राहें कभी सीधी नहीं होतीं। जब वि. सं. 1590 में श्रीहितप्रभु वृन्दावन आ गए, तो छबीलदासजी का हृदय एक विचित्र पीड़ा से भरने लगा। श्री हिताचार्य का वियोग उनके लिए असहनीय होता जा रहा था। प्रेम में विरह की व्यथा तीव्र होती है, और आखिरकार एक दिन, छबीलदास जी ने वृन्दावन की ओर प्रस्थान कर लिया।
वृन्दावन पहुँचे तो अपने बचपन के मित्र हरिवंशजी के दर्शन पाकर जैसे उनके मन की मुरझाई बेल फिर से हरी हो गई। हरिवंशजी ने भी उनका आदरपूर्वक स्वागत किया, और इस पुनर्मिलन ने दोनों के हृदयों में उमंग भर दी। वार्तालाप के बीच, जब छबीलदास जी को यह ज्ञात हुआ कि श्रीहिताचार्य ने वृन्दावन में एक रासमण्डल स्थापित किया है, जहाँ ब्रजवासी बालकों द्वारा रासलीला का अनुकरण किया जाता है, तो उनके मन में एक अजीब सी तड़प जाग उठी—”मैं इसे अपनी आँखों से देखना चाहता हूँ।”
उनकी इस हार्दिक इच्छा को समझते हुए, श्रीहिताचार्य ने उन्हें अपने एक सेवक के साथ रासलीला का दर्शन कराने के लिए भेज दिया। लेकिन जैसा कि कहते हैं, प्रेम के नयनों को दूरी नहीं बाँध सकती। छबीलदासजी अभी रासमण्डल पहुँचे भी नहीं थे कि उन्हें मुरली और मृदंग की दिव्य ध्वनि सुनाई देने लगी। जैसे-जैसे वे रासमण्डल के निकट पहुँचे, उनके सामने सजीव हो गया सखियों संग श्यामा-श्याम का अनुपम दृश्य।
यह दृश्य केवल आँखों का अनुभव नहीं था, यह तो आत्मा का परम सुख था। रास विलास के इस दिव्य दर्शन ने छबीलदासजी को इतना भावविभोर कर दिया कि वे आनंद के समुद्र में गोता लगाकर वहीं मूर्छित हो गए। मूर्छा की इस अवस्था में भी, उनकी आत्मा जुगल जोड़ी की मधुर लीला को निहारती रही, और समय जैसे ठहर गया।
जब वहाँ उपस्थित लोगों की नज़र उन पर पड़ी, तो वे छबीलदास जी को किसी प्रकार उठाकर श्रीहितप्रभु के पास ले आए। महाप्रभु ने प्रेम भरे स्वर में पूछा, “क्या तुम कुछ और समय इस संसार में रहना चाहते हो, या नित्य निकुंज में प्रवेश कर श्री श्यामा-श्याम की सेवा में परम आनंद प्राप्त करना चाहते हो?”
इस प्रश्न का उत्तर छबीलदास जी ने शब्दों में नहीं, बल्कि अपने समर्पण में दिया। उन्होंने धीरे से अपना मस्तक श्रीहितप्रभु के चरणों में रख दिया। उस क्षण, उनके प्राणों ने इस नश्वर शरीर को त्यागकर युगल की नित्य लीला में प्रवेश कर लिया।
प्रेम के इस चरम उत्कर्ष पर, छबीलदास जी ने दिखा दिया कि जब महापुरुष से प्रेम किया जाता है, तो वह एक ही क्षण में जीवात्मा को परमात्मा के चरणों तक पहुँचा देता है। उनका पार्थिव शरीर अब केवल एक साधन था, जो इस अलौकिक यात्रा का हिस्सा बन चुका था—जहाँ प्राकृत शरीर, अप्राकृत होकर, नित्य लीला में विलीन हो गया।