सिद्ध श्री मधुसूदनदास बाबा जी का जन्म बंगाल की पावन धरती पर हुआ। गाँव में जब कभी साधु-संत पधारते, तो वे उनके सत्संग एवं दर्शन हेतु श्रद्धा से पहुँच जाते।
एक अवसर पर ब्रज के कुछ रसिक संतों की मंडली उनके गाँव में आई। उन संतों ने श्यामसुंदर की मधुर लीला व अपूर्व स्वरूप का ऐसा वर्णन किया कि बाबा का हृदय उसी रूप-माधुरी में तन्मय हो गया। उन्होंने कहा — “श्यामसुंदर की प्राप्ति के बाद संसार में पाने योग्य कुछ भी शेष नहीं रहता।”
बाबा घर तो लौटे, पर अब मन हर पल ठाकुरजी के दर्शन को व्याकुल रहने लगा। संसार के किसी भी काम में रुझान नहीं रहा। परिवार वालों को चिंता सताने लगी। यह सोचकर कि कहीं ये सब कुछ त्याग न दें, उन्होंने इनका विवाह शीघ्र कर दिया — वह भी इनकी इच्छा के विरुद्ध। पर विवाह के दिन ही, रात्रि में, ये चुपचाप घर से निकल पड़े — गंतव्य केवल एक: श्रीधाम वृंदावन।
वृंदावन पहुँचकर यमुना तट पर एकांत में बैठकर ठाकुरजी की विरह-वेदना में अश्रु बहाते रहते। कभी माधुकरी कर लेते, तो कभी केवल यमुना जल का ही आहार होता। संतों से यह सुना था कि गुरु के बिना ठाकुरजी की कृपा प्राप्त नहीं होती। एक दिन केशीघाट पर एक वृक्ष के नीचे गुरु की तलाश में बैठे थे कि तभी एक साधु स्नान के लिए आए। उन्होंने आकर इनको मंत्र दीक्षा दे दी।
मंत्र सुनते ही बाबा गहन भावावेश में मूर्छित हो गए। होश आने पर देखा — कोई भी वहाँ नहीं था। न गुरु का नाम, न उनका निवास — कुछ भी ज्ञात न हो सका। परंतु वे उसी मंत्र का नित्य जप करने लगे।
कुछ समय पश्चात वे गोवर्धन पहुँचे और मानसीगंगा के पास सिद्ध संत श्रीकृष्णदास बाबा जी के समक्ष उपस्थित होकर भजन की विधि पूछी। जब बाबा ने संपूर्ण कथा सुनी, तो बोले — “हमारा मार्ग संबंधानुगा भजन का है। इस मार्ग में साधक का संबंध इष्ट से गुरु परिवार द्वारा निश्चित होता है। उसी आधार पर साधना होती है। परंतु तुम्हें तो अपने गुरु परिवार का ही ज्ञान नहीं है। ऐसे में तुम्हारा रागानुगा भजन में प्रवेश नहीं हो सकता। और दूसरी दीक्षा दी नहीं जा सकती, क्योंकि तुम पहले ही मंत्रार्थ सहित दीक्षित हो चुके हो।”
यह सुनकर बाबा अत्यंत शोकग्रस्त हो गए और रोने लगे। तब सिद्ध बाबा बोले — “तुम काम्यवन जाओ। वहाँ श्री जयकृष्णदास बाबा से मिलो।”
काम्यवन पहुँचकर उन्होंने संपूर्ण वृत्तांत सुनाया। बाबा जयकृष्णदास जी ने कहा — “तुम हरिनाम में तल्लीन हो जाओ। राधारानी जो चाहेंगी, वही होगा। जैसे गुरुदेव ने स्वयं प्रकट होकर दीक्षा दी, वैसे ही रागानुगा सेवा भी वे ही प्रदान करेंगी।”
यह सुनकर बाबा लौटकर पुनः गोवर्धन आए। मन में एक ही विचार गूंजता रहा — “जब मैं इस मार्ग का अधिकारी ही नहीं, तो इस शरीर का क्या करूँ?” उन्होंने एक गिरिराज शिला को रस्सी से गले में बाँधा और राधाकुंड में कूद गए। कई समय तक चेतनाहीन अवस्था में जल में डूबे रहे। जब होश आया, तो पाया कि कोई रस्सी खोल चुका है और वे राधाकुंड के तट पर पड़े हैं। पास में एक पत्र था — उस पर कुछ लिखा हुआ था।
इसे श्रीजी की करुणा मानते हुए वे फिर से जयकृष्णदास बाबा के पास गए और पत्र दिखाया। बाबा ने कहा — “यह श्रीजी की कृपा का संकेत है। पर जो मिला है, वह अभी व्यक्त नहीं हुआ है। पुनः श्रीराधाकुंड जाकर पुकार करो — श्रीजी अवश्य कृपा करेंगी।”

बाबा पुनः राधाकुंड गए और किशोरीजी को करुणा से पुकारने लगे। अंततः करुणामयी श्रीराधारानी ने प्रकट होकर दर्शन दिए और आज्ञा दी — “तुम सूर्यकुंड में जाकर भजन करो। वहीं तुम्हें अभीष्ट रागानुगा सेवा प्राप्त होगी। जो मंत्र तुम्हें मिला है, उसे गुप्त रखना और किसी को न देना।” श्रीजी अंतर्ध्यान हो गईं।
बाबा सूर्यकुंड आए और वहीं भजन आरंभ किया। एक दिन प्रिया जी ने स्वप्न में कहा — “जिस घाट पर तुम स्नान करते हो, उसके समीप जल में एक शिला है जिस पर मैंने और मेरी सखियों ने अपने आभूषण रखे थे। उस पर आज भी आभूषणों के चिन्ह हैं। तुम उस शिला को निकालकर उसका पूजन करो।”
बाबा ने वैसा ही किया। आज भी श्रद्धालु उस शिला के दर्शन करते हैं। तभी से लोग उन्हें “सिद्ध बाबा” कहने लगे।
एक बार कार्तिक मास में बाबा ने ब्रजवासियों से श्रीमद्भागवत पाठ की इच्छा व्यक्त की। ब्रजवासी प्रेमपूर्वक तैयार हो गए। रासपंचाध्यायी का पाठ प्रारंभ हुआ। पास ही में रहने वाला एक डोम जाति का बालक प्रतिदिन पाठ सुनने आता था। लोग उसे देखकर कई बातें करते। अंतिम दिन वह बाबा की गोद में आ बैठा और भोलेपन से पूछ बैठा — “बाबा! श्रीकृष्ण ने रास के बाद विश्राम कहाँ किया? सेवाकुंज में या संकेतवन में?”
बाबा उत्तर देने ही वाले थे कि तभी एक दिव्य शब्द हुआ — जैसे कोई विस्फोट हो गया हो। बाबा के प्राण ब्रह्मरंध्र को भेदकर निकल गए।
उसी स्थान पर उनकी समाधि स्थापित की गई जो आज भी सूर्यकुंड के समीप स्थित है।
मार्गशीर्ष शुक्ल अष्टमी के दिन बाबा अपनी नित्य निकुंज सेवा में प्रविष्ट हुए।







