सेवक सम सेवक नहीं कोई
दामोदरदास जी “सेवक जी” के नाम से प्रसिद्ध हो गए, क्योंकि उनकी तरह सेवा-धर्म का पालन करने वाला और कोई उदाहरण मिलना मुश्किल था। वे सभी हितधर्मियों में अग्रणी थे। श्री हित हरिवंशचन्द्र जी महाराज का नाम और उनकी वाणी उन्हें अपने दामोदरदास जी “सेवक जी” के नाम से प्रसिद्ध हो गए, क्योंकि उनकी तरह सेवा-धर्म का पालन करने वाला और कोई उदाहरण मिलना मुश्किल था। वे सभी हितधर्मियों में अग्रणी थे। श्री हित हरिवंशचन्द्र जी महाराज का नाम और उनकी वाणी उन्हें अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय थी।
गुरु शरणागति की आकांक्षा
मध्य प्रदेश के गोंडवाना क्षेत्र के गढ़ा नामक गांव में चतुर्भुज नामक एक ब्राह्मण रहते थे, जिनसे सेवक जी की गहरी मित्रता थी। दोनों ही महान पंडित और कुशल थे, और उन्हें हरि-भक्तों से स्वाभाविक प्रेम था। वे दोनों भक्तों की सेवा दिल से करते हुए, खुद को बहुत सौभाग्यशाली मानते थे। दोनों का मानना था कि गुरु बनाना आवश्यक है, लेकिन काफी समय बीत जाने के बावजूद, वे यह तय नहीं कर पाए थे कि किसे गुरु बनाएं।
वृन्दावन के रसिक संतो की कृपा
एक दिन वृन्दावन से रसिक उपासकों का एक समूह गढ़ा आया और उनसे मिला। उन उपासकों के दर्शन और वार्तालाप से दोनों अत्यंत प्रसन्न हुए। उनके विशेष अनुरोध पर रसिकों ने उनके घर पर ही विश्राम किया और सत्संग हुआ। सत्संग के दौरान, रसिकों ने युगल-केलि प्रधान वृन्दावन-रस की मधुर चर्चा की, जिसे सुनकर दोनों के हृदय में भी वृन्दावन-रस के प्रति गहरी आकांक्षा जाग्रत हो गई। उनकी इस लालसा को देखकर, रसिकों ने उनसे पूछा, “तुम किसके शिष्य हो?” इस पर दोनों ने कहा, “हमने अभी तक गुरु नहीं बनाया है, लेकिन हम गुरु बनाने का विचार कर रहे हैं। अब आप ही कृपा करके बताएं कि हमें किसे गुरु बनाना चाहिए।” तब रसिकों ने बताया |
गोस्वामी श्रीहित हरिवंशचन्द्र जी का परिचय
“इस समय वृन्दावनधाम में सभी रसिकों द्वारा प्रशंसित गोस्वामी श्री हित हरिवंशचन्द्र जी महाराज विराजमान हैं। उनकी प्रीति-रीति और जीवनशैली सर्वोपरि और सभी के लिए आदर्श हैं।” इसी संदर्भ में रसिकों ने नवलदासजी के सत्संग से हरिराम व्यासजी के शिष्य बनने का प्रसंग भी सुनाया।
श्रीहितजी महाराज का अंतरध्यान और सेवक जी का संकल्प
श्रीहित हरिवंशचन्द्र जी की महिमा सुनकर दोनों ने निश्चय किया कि वे ही उनके गुरु बनेंगे। हालांकि, उन्होंने निर्णय तो कर लिया, लेकिन अन्य कार्यों में व्यस्त होने के कारण वे वृन्दावन जाकर दीक्षा नहीं ले पाए। अचानक, किसी के माध्यम से उन्हें यह दुखद समाचार मिला कि श्रीहित हरिवंशचन्द्र जी अंतरध्यान हो गए हैं। यह सुनकर वे दोनों अत्यंत दुखी हुए, और साथ ही यह भी सुना कि अब उनके आचार्य आसन पर उनके ज्येष्ठ पुत्र गोस्वामी श्रीवनचन्द्रजी विराजमान हैं, जो श्रीहित धर्म के मर्म को उसी तरह वितरित कर रहे हैं, जैसे श्रीहिताचार्य के समय में किया जाता था।
सेवक जी का दृढ़ संकल्प
चतुर्भुजदासजी ने सेवक जी से कहा, “अब हमें वृंदावन जाकर गोस्वामी श्रीवनचन्द्रजी से दीक्षा ले लेनी चाहिए।” लेकिन सेवक जी ने उत्तर दिया, “मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया है कि मैं केवल श्रीहितजी महाराज से ही दीक्षा लूँगा। यदि उनसे दीक्षा प्राप्त नहीं हुई, तो मैं अपने प्राण त्याग दूँगा।” यह सुनकर चतुर्भुजदासजी वृंदावन के लिए रवाना हो गए और वहाँ पहुँचकर श्रीवनचन्द्रजी से दीक्षा ले ली। दूसरी ओर, सेवक जी अपने प्रण पर अडिग रहे। उन्होंने अन्न-जल त्याग दिया और श्रीहरिवंशजी के नाम का निरंतर स्मरण करने लगे।
श्रीहितजी महाराज का स्वप्न में आना
तीन दिन बाद सेवक जी को स्वप्न में दर्शन हुआ कि श्रीहितजी महाराज ने उन्हें वृंदावन पहुँचा दिया है। वहाँ उन्होंने अपने साक्षात दर्शन दिए और सेवक जी के सिर पर हाथ रखकर उन्हें अपना शिष्य बना लिया। उन्होंने न केवल सेवक जी को निज मंत्र की दीक्षा दी, बल्कि इष्ट और अपने धर्म का सम्पूर्ण रहस्य भी बताया। इसके साथ ही उन्होंने वृंदावन, वहाँ की कुंज-निकुंजों, यमुना के तट, और श्री प्रिया-प्रियतम के प्रत्यक्ष दर्शन भी कराए। इसके अतिरिक्त, श्रीहितजी महाराज ने उन्हें वाणी रचना की सामर्थ्य भी प्रदान कर दी।
‘सेवक वाणी’ का उदय
इस अद्भुत गुरु-कृपा का परिणाम सभी को तब पता चला, जब सेवक जी ने हित-श्री श्यामा-श्याम की रहस्यमयी लीलाओं का गान करना शुरू किया और श्रीहरिवंशजी के स्वरूप का वर्णन करने लगे। जब सेवक जी वापस गढ़ा लौटे, तो उन्होंने श्रीहितहरिवंशचन्द्र जी से प्राप्त मंत्र का उल्लेख किया। कुछ समय बाद, चतुर्भुजदासजी ने वृंदावन से लौटकर श्रीवनचन्द्रजी से दीक्षा लेने का पूरा विवरण सेवक जी को सुनाया। उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि जो मंत्र उन्हें श्रीवनचन्द्रजी से मिला था, वही मंत्र सेवक जी को भी प्राप्त हुआ था।
‘सेवक वाणी’ की महत्ता
जब चतुर्भुजदासजी ने ‘सेवक वाणी’ पढ़ी, तो उन्हें अनिर्वचनीय आनंद प्राप्त हुआ। वे प्रसन्न होकर सेवक जी के चरणों में गिर पड़े और उन्हें हृदय से लगा लिया। ‘सेवक वाणी’ में श्री हरिवंशजी सर्वस्व हैं और उन्हें श्यामा-श्याम से अभिन्न माना गया है। इसमें रसिक-अनन्यता, धर्म के विभिन्न पहलुओं, कृपा-अकृपा के पात्र, अधूरे और सिद्ध भक्तों आदि विषयों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। यही कारण है कि जो लोग ‘सेवक वाणी’ नहीं जानते, उनकी बातें रसिक जन प्रमाणिक नहीं मानते। “सेवक वाणी जे नहिं जानें। तिनकी बात रसिक नहिं मानें।।”
श्रीवनचन्द्रजी की सेवक जी से मिलने की लालसा
वृन्दावन में जब श्रीवनचन्द्रजी ने सेवक जी की “सेवक वाणी” सुनी, तो उनके मन में सेवक जी से मिलने की तीव्र लालसा जागी। उन्होंने यह प्रण कर लिया कि जिस दिन वे सेवक जी से मिलेंगे, उसी दिन वे श्रीजी का सम्पूर्ण भंडार उनके ऊपर न्यौछावर कर देंगे। जब सेवक जी को इस प्रण की जानकारी हुई, तो उनका हृदय विचलित हो गया। वे सोचने लगे, “मैं तो वृन्दावन जाकर श्रीराधावल्लभलालजी के दर्शन करना चाहता था, लेकिन अगर मैं वहाँ जाऊँगा, तो श्रीजी का सारा भंडार ही लुटा दिया जाएगा। अब मैं वृन्दावन जाऊँ तो कैसे?” इस विचार के चलते सेवक जी ने वृन्दावन जाने का इरादा त्याग दिया।
श्री सेवक जी का छिपकर वृंदावन जाना
जब श्रीवनचन्द्रजी को यह पता चला कि सेवक जी उनके प्रण के कारण वृन्दावन नहीं आ रहे हैं, तो उन्होंने कई बार आग्रह करते हुए एक भावपूर्ण पत्र लिखा। इस पत्र में उन्होंने सेवक जी को सौगंध देकर बुलाने का आग्रह किया। सेवक जी के पास कोई विकल्प न रहा और वे विवश होकर वृन्दावन आने के लिए तैयार हुए। लेकिन भंडार लुटने के डर से, उन्होंने भेष बदल लिया और भीड़ में छिपकर श्रीजी के दर्शन करने लगे।
प्रण की पूर्ति और प्रेम का आदान-प्रदान
हालाँकि सेवक जी ने अपने भेष को बदलकर भीड़ में खड़ा होना ही बेहतर समझा, पर श्रीवनचन्द्रजी की प्रेमपूर्ण दृष्टि ने उन्हें भीड़ में भी पहचान लिया। श्रीवनचन्द्रजी सेवक जी को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए और उठकर उनसे मिलने चले गए। सेवक जी ने देखा कि गोस्वामीजी अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार भंडार लुटाने की तैयारी में हैं। यह देखकर सेवक जी ने तुरंत प्रार्थना की, “मेरे आने से श्रीजी का भंडार न लुटाया जाए।” परन्तु जब गोस्वामीजी ने उनकी प्रार्थना पर ध्यान नहीं दिया, तो सेवक जी ने गुसाईंजी के चरणों में सिर रखकर पुनः प्रार्थना की।
तब श्रीवनचन्द्रजी ने कहा, “मैंने भी तो तुम्हारे ऊपर भंडार लुटाने का प्रण कर रखा है, और तुम इसे रोकने का आग्रह कर रहे हो। अब तुम ही बताओ, ये दोनों बातें एक साथ कैसे संभव हों?” इसके बाद गोस्वामीजी ने समाधान सुझाते हुए कहा, “अब इसका एकमात्र उपाय है कि मैं तुम्हारे ऊपर श्रीजी का प्रसादी भंडार न्यौछावर करके इसे पूरा कर दूँ।” ऐसा कहते हुए, श्रीवनचन्द्रजी ने सारा प्रसादी भंडार लुटा दिया, जिससे दोनों की प्रतिज्ञा की रक्षा हुई।
हित चौरासी और सेवक वाणी का महत्व
इस दिव्य घटना से यह स्पष्ट होता है कि गुरु अपने शिष्यों पर किस प्रकार प्रसन्न होते हैं और उन पर अपनी सारी कृपा न्यौछावर करके उन्हें प्रेम-रस में भिगो देते हैं। श्रीवनचन्द्रजी ने उसी दिन सभी हितधर्मियों को यह आदेश भी दिया कि “हित चौरासी” और “सेवक वाणी” को हमेशा एक साथ लिखा और पढ़ा जाना चाहिए। सेवक जी जैसा उपासक और कोई नहीं हुआ, जिनके प्रण की रक्षा स्वयं उनके गुरु ने इस प्रकार की हो।
इस पूरी घटना में गुरु-शिष्य के प्रेम और भक्ति का अपार सौंदर्य दिखाई देता है, जहाँ गुरु अपने शिष्य के प्रति प्रेम में सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार रहते हैं, और शिष्य अपने गुरु की कृपा से धन्य हो जाते हैं।
प्राणों से भी अधिक प्रिय है।
सेवक जी का निकुंज लीला में सशरीर प्रवेश
सेवक जी वृन्दावन में केवल कुछ ही दिनों तक, लगभग 10 दिन, रह सके। इस समय में, यह कहा जाता है कि श्रीहित हरिवंशजी महाराज के निकुंज गमन को एक वर्ष पूरा हो चुका था। उस विशेष दिन, सेवक जी (रास मंडल रासेश्वरी राधारानी मंदिर) में, जो सेवा कुञ्ज के निकट स्थित है, एक वृक्ष के नीचे ध्यानमग्न होकर बैठ गए। उनके ध्यान की गहराई इतनी प्रबल थी कि वे सशरीर ही नित्य लीला में प्रवेश कर गए।