श्री हरिराम व्यास जी ओरछा (बुन्देलखण्ड) के निवासी श्रीसुमोखन जी शुक्ल के पुत्र रत्न थे। ओरछा राज्य के राजगुरु जैसे कुलीन परिवार में जन्म लेने के कारण राजा एवं प्रजा दोनों ही इनका अत्यन्त सम्मान किया करते थे। ये अपने समय के एक अद्वितीय विद्वान थे। इन्होंने शास्त्रों-पुराणों का गहन अध्ययन किया था, जिसके कारण इन्हें शास्त्रार्थ करने में कोई भी पराजित नहीं कर पाता था। जब कोई व्यक्ति अपनी किसी शंका अथवा कोई जिज्ञासा लेकर इनके पास आता था, तब ये शास्त्रों के आधार पर बड़े ही तार्किक ढंग से उसकी समस्या का ऐसा समाधान किया करते कि उसके मन में किसी प्रकार का कोई संशय शेष ही नहीं रह जाता था।
शास्त्रों में वर्णित गुरु की महिमा को जानकर ये भी एक ऐसा श्रेष्ठ गुरु बनाना चाहते थे जो इन्हें भव सागर से पार करके प्रभु का नित्य सानिध्य प्राप्त करा सके। यद्यपि ऐसे श्रेष्ठ गुरु के रूप में रैदास जी, कबीर जी, पीपा जी, जयदेव जी, नामदेव जी, रंका-बंका जी, रामानन्द जी आदि भक्तों के नाम इनके मन में आते रहते थे; किन्तु ये किसी एक की शरण ग्रहण करने का निर्णय नहीं कर पा रहे थे। कभी-कभी ये वृन्दावन की महिमा का गान करते हुए वृन्दावन की रस-उपासना में दीक्षित होने की भी सोचा करते थे। इस सोच-विचार में इनकी व्यालीस वर्ष की आयु हो गयी, किन्तु ये किसी को अपना गुरु नहीं बना सके।
एक दिन श्री हित हरिवंश महाप्रभु के शिष्य श्री नवलदास जी वैरागी ओरछा पहुँचे। व्यासजी उनसे मिलकर बहुत प्रसन्न हुए, उन्हें अपने घर ले गये और हार्दिक प्रीति के साथ उनका आतिथ्य सत्कार किया। वे जब भी चलने की बात करते, तब श्री हरिराम व्यास जी आग्रह पूर्वक उनसे और कुछ दिन रुकने का निवेदन करते। एक दिन सत्संग करते हुए श्री नवलदास जी ने श्री हिताचार्य का ‘आज अति राजत दंपति भोर’ यह पद गाया, जिसे सुनकर व्यास जी अत्यधिक हर्षित हुए तथा इस पद के अर्थ का विचार करते हुए व्यासजी का रोम-रोम पुलकित हो उठा। उक्त पद की अन्तिम पंक्ति “जैश्री हित हरिवंश लाल ललना मिलि हियौ सिरावत मोर” के भाव का अनुसन्धान करते हुए श्री हरिराम व्यास जी सोचने लगे कि मिलन तो लाल और ललना का होता है, किन्तु शीतलता की प्राप्ति श्री हित हरिवंश जी को होती है, ये बड़ी विचित्र बात है।
वस्तुतः जब भी दो लोग आपस में मिलते हैं, तब उन दोनों का हृदय ही प्रसन्नता का अनुभव करता है, किसी तीसरे का हृदय शीतल नहीं होता। फलतः व्यास जी को श्रीहितहरिवंशजी के विषय में जानने की तीव्र उत्कंठा हुई, तब व्यासजी की हार्दिक रुचि समझकर नवलदासजी ने उन्हें बताया कि श्री हिताचार्य जी की प्रेमोपासना में विधि-निषेध का बन्धन नहीं है तथा योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत आदि को रस भक्ति के आगे तुच्छ बना दिया गया है। इस उपासना में नित्यविहारी श्री राधावल्लभ लाल इष्ट हैं। अतः आप उन्हीं को अपना इष्ट एवं श्री हिताचार्य जी को अपना गुरु बना लीजिए।
इस चर्चा से श्री हरिराम व्यास जी के हृदय में वृन्दावन-रस-पिपासा के साथ-साथ उस रस प्राप्ति की मधुर आशा भी जाग उठी थी, फलतः श्री हरिराम व्यास जी नवलदास जी के प्रस्ताव से तत्काल सहमत हो गये और विक्रम संवत 1591 के कार्तिक मास के आरम्भ में ये नवलदास जी के साथ श्री हिताचार्य के दर्शन के लिए श्री वृन्दावन पहुँच गये। मन्दिर में पहुँचकर इन्होंने देखा कि हित जी महाराज ठाकुर जी के लिए रसोई बना रहे हैं। व्यासजी उनके दर्शन करके अत्यन्त आनन्दित हुए और उनसे उसी समय सत्संग सम्बन्धी वार्तालाप करने का निवेदन करने लगे। श्री हिताचार्य ने उनकी उत्सुकता देखकर चूल्हे पर चढ़ा हुआ पात्र नीचे उतार दिया और आग बुझा दी। व्यासजी ने नम्रता के साथ कहा कि आपने पात्र क्यों उतार दिया, आप एक साथ दोनों काम कर सकते थे-हाथ से रसोई बना सकते थे और मुख से चर्चा कर सकते थे। करना-धरना ये हाथ का धर्म है और कहना सुनना मुख का काम है। यह तर्क सुनकर महाप्रभु जी ने उनको एक पद- “यह जु एक मन बहुत ठौर करि कहि कौनै सचु पायौ” – तत्काल बना कर सुनाया। इस पद में महाप्रभु जी ने कहा है कि मनुष्य को एक मन मिला है, उसको एक ही समय में दो जगह लगाने से किसी को सुख नहीं मिलता, दो घोड़ों पर सवारी करके कोई दौड़ नहीं सकता। इस दृष्ट जगत् में जो कुछ भी है, वह सभी असत्य है, वंचना है, प्रपंच है, नाशवान है; अतः श्रीश्यामाश्याम के चरण कमलों से प्रीति रखने वाले रसिकजनों के प्रति अपने आप को सम्पूर्ण रूप से समर्पित कर देना ही परम श्रेयस्कर है, क्योंकि उन रसिकजनों के हृदय रूपी सरोवर में ही श्रीश्यामाश्याम के चरण रूपी कमल खिला करते हैं।
इस पद का श्री हरिराम व्यास जी के ऊपर इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि इन्होंने भक्तों को अपना इष्ट ही बना लिया और जीवन भर उनकी सेवा करते रहे।
इसके साथ ही इन्होंने श्री हिताचार्य जी से प्रार्थना की कि आप मुझे हित धर्म की शिक्षा देकर मंत्र-दीक्षा प्रदान करने की कृपा करें। महाप्रभु जी ने भी इनके हृदय की सच्ची श्रद्धा देखकर इनको निज मंत्र दे दिया। ये महाप्रभुजी से विवाद करने के लिए जो पोथियाँ अपने साथ लाये थे, उन सबको इन्होंने यमुना जी में प्रवाहित कर दिया और वृन्दावन-वास का अनन्य व्रत लेकर हित-रस-रीति के अनुसार नित्य निकुंज विलासी रसमूर्त्ति अद्वय युगल श्यामा-श्याम की उपासना करने लगे। कालान्तर में इन्होंने एक कुएं से ठाकुर श्री जुगलकिशोर जी को प्रकट किया तथा उनके वामांग में श्रीप्रियाजी की गादी सेवा स्थापित की और हित पद्धति के अनुसार उनकी अष्टयामी सेवा अत्यन्त लाड़-चाव पूर्वक करने लगे।
व्यास जी और नवलदास के मध्य हुई वार्त्ता में श्री हरिराम व्यास जी ने जब से यह सुना था कि गो. श्री हित हरिवंशजी ने वृन्दावन में एक रासमण्डल की स्थापना कर उस पर व्रजवासी बालकों द्वारा नित्य रास का नाट्य रूप से अनुकरण कराया जाना प्रारम्भ किया है, तभी से इनके मन में उसे अपनी आँखों से देखने की लोल लालसा उत्पन्न हो गयी थी; किन्तु जब इन्होंने वृन्दावन में आने के पश्चात उस नित्य रासलीलानुकरण को प्रत्यक्ष रूप से देखा, तब ये उसके मधुर आकर्षण से ऐसे मोहित हुए कि इन्होंने उसे रसोपासना का अनूठा माध्यम स्वीकार करते हुए उसे अपनी दैनिक चर्या ही बना लिया और कह उठे-
“मैंन न मूँदे ध्यान कौं, किये न अंग न्यास।
नाँच गाय रासहिं मिले, बसि वृन्दावन व्यास ।।”
एक समय वृन्दावन में रासलीलानुकरण हो रहा था, जिसमें गोस्वामी श्रीहित हरिवंशजी, स्वामी हरिदासजी, प्रबोधानन्दजी आदि बड़े-बड़े अनन्य रसिकों के साथ व्यासजी भी थे। रासलीलानुकरण में नृत्य करते समय श्री राधा का स्वरूप बने बालक के चरण में धारण किया गया नूपुर टूट गया और उसके घुँघरू बिखर गये। यह देखकर श्री हरिराम व्यास जी ने अनन्य प्रेम के आगे वर्णाश्रम धर्म की तनिक भी परवाह किये बिना तत्काल अपना यज्ञोपवीत तोड़कर उसके धागे से नुपूर के घुँघुरू गूँथ दिये और लीला यथावत चलने लगी। यह करने के बाद ये महतजनों की उस भरी सभा में बोले-
“इस यज्ञोपवीत को जन्म भर ढोया, पर काम आज ही आया।”
“नौगुनी तोरि नूपुर गुह्यौ, महत सभा मधि रास के।
उत्कर्ष तिलक अरु दाम कौ, भक्त इष्ट अति व्यास के ॥”
व्यास जी को विक्रम संवत 1591 से विक्रम संवत 1609 के मध्यकाल तक अपने गुरुवर्य गोस्वामी श्रीहित हरिवंशजी की छत्रछाया प्राप्त हुई थी; किन्तु विक्रम संवत 1609 में गुरुवर के अन्तर्हित हो जाने से इन्हें हृदय विदारक पीड़ा हुई। गोस्वामी श्रीहित हरिवंशजी के निकुंज गमन के पश्चात श्री हरिराम व्यास जी ने अपनी हार्दिक वेदना और रसिक समाज की दुर्दशा का वर्णन करते हुए एक पद की रचना की जिसमें इन्होंने कहा है कि श्री हरिवंशचन्द्र रसोपासना और रसिकजनों के आधार थे। उनके बिना अब इस उपासना का भार कौन वहन करेगा और कौंन श्रीराधा को प्यार दुलार भरे सुन्दर वचन सुनायेगा ? अब ऐसा उदार कौन रह गया है, जो श्री वृन्दावन की सहज माधुरी का वर्णन कर सके ? उनके जैसी पद-रचना के अभाव में सारा संसार अब नीरस हो गया है। अनन्य रसिकों की सभा के लिये यह बड़े दुर्भाग्य की बात है, क्योंकि उनके चले जाने से यह सभा सुहाग भाग विहीना हो चुकी है। उनके बिना मेरा तो एक-एक क्षण सौ युगों के समान व्यतीत हो रहा है। श्री व्यासजी कहते हैं कि एक चन्द्रमा के बिना तारों से भरा हुआ आकाश तेजहीन हो गया है-
हुतौ रस रसिकनि कौ आधार।
बिनु हरिवंशहि सरस रीति कौ, कापै चलि है भार ॥
को राधा दुलरावै गावै, वचन सुनावै चार।
वृन्दावन की सहज माधुरी, कहि है कौन उदार ॥
पद रचना अब कापै ह्वै है, निरस भयौ संसार।
बड़ौ अभाग अनन्य सभा कौ, उठिगौ ठाठ सिंगार ॥
जिन बिनु दिन छिन सत-युग बीतत, सहज रूप आगार।
‘व्यास’ एक कुल कुमुद बन्धु बिनु, उड़गन जूठौ थार ॥
व्यासजी के तीन पुत्र थे। श्री हिताचार्य के अन्तर्हित होने के पश्चात् ये तीनों भाई श्री वृन्दावन आ गये थे। व्यास जी ने अपनी सम्पत्ति का बँटवारा इन तीनों में बड़े विलक्षण ढंग से किया। एक ओर ठाकुर श्रीजुगलकिशोरजी की सेवा, दूसरी ओर स्वर्णादि धन सम्पत्ति और तीसरी ओर श्यामवन्दनी तथा माला-तिलक। एक ने धन-धाम ले लिया, दूसरे ने ठाकुर श्रीजुगलकिशोरजी
की सेवा ले ली तथा तीसरे पुत्र किशोरदास, जो सबसे बड़े थे, के हिस्से में माला-तिलक आये। व्यास जी ने उन्हें स्वामी श्रीहरिदास जी का शिष्य करा दिया और वे श्री कुंजबिहारी को अपना इष्ट मानकर भजन करने लगे।
लगभग 100 वर्ष की दीर्घ आयु प्राप्त करने के बाद, श्री वृन्दावन के सब सन्त महन्तों की उपस्थिति में, श्री व्यास जी ने प्रसन्न चित्त से नित्यलीला में प्रवेश किया।
श्री भगवतमुदित जी ने अपनी ‘रसिक अनन्य माल’ में श्री व्यास जी का इतना ही वृत्तान्त दिया है। यद्यपि नाभाजी ने अपनी ‘भक्तमाल’ की एक छप्पय में ही व्यास जी का परिचय दिया है, किन्तु प्रियादासजी ने अपनी ‘भक्ति रस बोधिनी’ नाम्नी टीका में इस छप्पय की टीका बहुत विस्तार से की है। उसमें से कुछ रोचक और शिक्षाप्रद प्रसंग नीचे दिये जाते हैं-
नाभाजी द्वारा लिखित “भक्त इष्ट अति व्यास के”- इस पंक्ति को पढ़कर इसकी सत्यता की परीक्षा करने के उद्देश्य से एक सन्त व्यास जी के यहाँ आये। वे व्यास जी के समक्ष ऐसी क्रियायें करने लगे, जैसे उन्हें बड़ी भूख लग रही हो। व्यास जी उस समय अपने सेव्य स्वरूप श्रीजुगलकिशोरजी को भोग लगाने के लिये थाल तैयार कर रहे थे; किन्तु व्यास जी ने भोग में ले जाने वाले उस अमनिया थाल को पहले उन संतजी के सामने ही रख दिया और कहने लगे कि प्रभु तो धैर्यवान हैं, उन्हें बाद में दूसरा थाल अर्पित कर दिया जायगा। व्यास जी के इन वचनों को सुनकर भी सन्तजी की शंका दूर नहीं हुई और उन्होंने भोजन करना प्रारम्भ कर दिया; किन्तु उन्होंने अभी केवल दो-चार ग्रास मात्र ही लिये होंगे कि उन्हें कोई शारीरिक पीड़ा होने लगी, अतः वे उस थाल को व्यास जी को देते हुए उठ खड़े हुए और चल पड़े पीड़ा निवारण हेतु। व्यास जी ने उन्हें भूखा जाते हुए देखकर शीघ्र ही उनके चरण पकड़ लिये और कहने लगे कि इसे तो आपने प्रसादी करके मुझे दे दिया है, अब मैं आपके लिये दूसरा ले आता हूँ। व्यास जी की सन्तों के प्रति ऐसी निष्कपट सहज प्रीति देखकर सन्तजी भाव विभोर हो गये और उनकी आँखों में अश्रु आ गये। अब उनके हृदय ने यह बात पूर्ण रूप से स्वीकार कर ली कि नाभाजी के द्वारा- “भक्त इष्ट अति व्यास के” यह बात सत्य ही लिखी गई है।
एक बार व्यास जी संतों के साथ प्रसाद ग्रहण कर रहे थे। श्री हरिराम व्यास जी की पत्नी परोस रही थी। जब वह दूध परोसने लगीं, तब व्यास जी के कटोरे में दूध क साथ दूध की मलाई भी छिटक कर इनके कटोरे में से गिर गई। अब तो व्यास जी क्रोधित हो उठे और उसे सन्त-सेवा से अलग कर दिया। वह ग्लानि के कारण तीन दिन तक बिना भोजन किये पड़ी रहीं। तब सभी संतों के समझाने पर व्यासजी इस शर्त पर राजी हुए कि ये अपने अंगों के समस्त आभूषणों को बेचकर सन्त-सेवा करे, तभी हम इसे स्वीकार कर सकते हैं, साथही एक पद भी बनाया-
जो तिय होय न हरि की दासी।
कीजै कहा रूप गुन सुन्दर, नाहिन स्याम उपासी ।।
पत्नी द्वारा श्री हरिराम व्यास जी की इच्छा के अनुसार शर्त पूरी किये जाने पर ही
श्री हरिराम व्यास जी ने उसे पुनः सेवा प्रदान की। इनकी सन्त-निष्ठा की एक और कथा है। व्यास जी की पुत्री के विवाह का आयोजन था, जिसमें इनके परिवारीजनों ने बड़े उत्साह के साथ बरात के लिए अनेक प्रकार के पकवान तैयार कराये। वे सब इतने बढ़िया बने कि उन्हें देखकर इनकी बुद्धि उधेड़बुन में पड़ गयी कि ऐसे स्वादिष्ट पदाथों को तो भक्तों को खिलाना चाहिए। मस्तिष्क में इस विचार के आते ही, जब सभी लोग बारात का स्वागत करने के लिये गये हुए थे, उसी समय इन्होंने सभी साधुओं को बुलवा लिया और वह सब सुन्दर सामग्री भावना में ही स्वेष्ट को समर्पित करके चुपचाप पोटरी बाँध बाँध कर उन सन्तजनों को देते हुए कहा कि इसे ले जाकर अपनी-अपनी कुंज में बैठकर प्रसाद ग्रहण करना, क्योंकि आज यहाँ स्थान और समय दोनों का ही अभाव है। इतने पर भी प्रभु कृपा से भण्डार खाली नहीं हुआ और बरात की भी यथेष्ट खातिर उसी में हो गई। एक बार व्यास जी के यहाँ संगीत प्रेमी कोई भोलेभाले सन्तजी आये।
उन्होंने अपनी ठाकुर-सेवा भी व्यास जी के यहाँ विराजमान कर दी। व्यास जी के प्रेमपूर्ण आतिथ्य से विवश होकर बहुत दिनों तक वे व्यास जी की कुटी में ही निवास करते रहे। जब भी वे चलने की कहते तो व्यास जी किसी न किसी बहाने से उन्हें रोक लेते थे। एक दिन उन्होंने हठ पकड़ ली कि आज तो हम निश्चित रूप से जायेंगे ही। वे व्यास जी से अपनी ठाकुर-सेवा माँगने लगे।
विनोदप्रिय व्यास जी ने उनकी ठाकुर सेवा तो अपने यहाँ छिपा ली और उनके बटुए में एक चिड़िया रखकर उनको सौंप दी। यमुना जी पर पहुँच कर सन्त ने स्नान किया और ठाकुर जी की पूजा करने के लिये ज्योंही बटुआ खोला चिड़िया उसमें से निकल कर श्री वृन्दावन की ओर उड़ गई। भोले सन्त दुखित हृदय से लौटकर फिर व्यास जी के पास आये और पूँछने लगे- “क्या हमारे ठाकुर जी आपके यहाँ उड़कर आ गये हैं।” व्यास जी ने कहा-“हाँ, वह देखो, विराजमान हैं। मैंने आपसे कहा था कि नहीं, कि आप जाना चाहें तो भले ही जाँय, किन्तु आपके ठाकुरजी वृन्दावन से बाहर नहीं जाना चाहते।” सन्तजी के चित्त में यह बात बैठ गई और उन्होंने सदा के लिये वृन्दावन वास करने का निश्चय कर लिया।
वृन्दावन की अनन्य निष्ठा इनके जीवन में मूर्त रूप में प्रत्यक्ष हुई थी। वृन्दावन से बाहर जाने वाले या वृन्दावन से बाहर जाने का विचार करने वाले पर तो ये खीज उठते थे। ओरछा नरेश मधुकरशाह इन्हें वापिस ले जाने के लिये वृन्दावन आयेः किन्तु बहुत प्रयास करने के पश्चात भी असफल होकर लौट गये। कुछ दिनों बाद में राजा के भेजे हुए विप्रगण जब इनसे बार-बार वृन्दावन छोड़कर ओरछा जाने का हठ कर रहे थे तो एक दिन इन्होंने वृन्दावन धाम की अनन्य निष्ठा और स्वेष्ट के महाप्रसाद की अति उत्कट अनन्यता की रक्षा करने के लिये, श्रीराधावल्लभ मन्दिर से जूठन प्रसाद लेकर आती हुई भंगिन की डलिया से प्रसाद उठाकर खा लिया। व्यास जी की इस क्रिया को देखकर वे सभी इनका उपहास करने लगे और कहने लगे कि ये तो अब आचार भ्रष्ट हो गये हैं और ऐसा कहते हुए वे सभी ओरछा वापिस चले गये। उसी समय व्यास जी की प्रसन्नता एक पद के रूप में फूट निकली –
एक पकौरी सब जग छूट्यौ।
जप-तप-व्रत-संयम करि हारे, नैंकु नहीं मन टूट्यौ ।।
माया-रचित प्रपंच कुटुम्बी, मोह-जाल सब छूट्यौ।
व्यासदास हरिवंश कृपा तैं, बसि वनराज प्रेम रस लूट्यौ ॥
ओरछा लौटकर उन्होंने जब राजा को यह घटना सुनायी, तब राजा स्वयं ही इन्हें मनाने वृन्दावन पहुँचे और आग्रह किया कि एक दिन के लिए ही सही, नेहागे। किन्तु आप एक बार ओरछा अवश्य पधारे। कहते है, जब किसी प्रकार भी
राजा नहीं माने, तो व्यास जी ने कहा- “जब चलना ही है, तब मुझे अपने भाई-बन्धुओं से तो मिल लेने दो।” इस मिलन का दृश्य अलौकिक था। व्यास जी का वृन्दावन की लता पताओं से घनिष्ठ प्रेम था। किसी भी परिस्थिति में श्री वृन्दावन से बाहर जाना इनके लिए असम्भव हो गया था। राजा ने देखा कि व्यास जी वृन्दावन की लता और वृक्षों से लिपट लिपट कर रो रहे हैं और कह रहे हैं- “मुझसे ऐसा क्या अपराध बन गया, जो आज तुमसे अलग हो रहा हूँ।” व्यास जी के इन अद्भुत आचरणों को देखकर ओरछा नरेश मधुकरशाह अत्यधिक प्रभावित हुए, क्योंकि वे बड़े ही धर्मनिष्ठ राजा थे। उनका हृदय पिघल गया और व्यास जी के साथ वे भी रो पड़े। उन्होंने तब व्यासजी के चरणों पर गिरकर अपने दुराग्रह के लिए क्षमा माँगी और व्यास जी से भगवद्-भक्ति का उपदेश लेकर अपने राज्य को लौट गये। एक दिन व्यास जी अपने आराध्य ठाकुर श्रीजुगलकिशोरजीजी के मस्तक पर जरी की पाग धारण करा रहे थे, किन्तु सिर के चिकना होने के कारण वह बार-बार खिसल पड़ती थी। बहुत प्रयत्न करने के पश्चात भी जब पाग नहीं बँध पाई, तो ये ठाकुरजी से कहने लगे “महाराज! या तो आप पाग बँधवा लो, या फिर अपने आप ही बाँध लो।” यह कहकर ये सेवाकुंज चले गये, लेकिन रह-रह कर इनको पाग की याद आती थी। अन्त में, जब नहीं रहा गया तो वे वापिस आये और देखा कि श्री ठाकुर जी के मस्तक पर बड़े सुन्दर ढंग से पाग बँधी हुई है। श्रीजुगलकिशोरजीजी की अद्भुत रूप माधुरी का दर्शन करके व्यास जी अत्यन्त आनन्द से भर गये और बोल उठे “जब आप ऐसी सुन्दर पाग बाँधना जानते हैं, तो भला मेरी बाँधी हुई पाग आपको क्यों पसन्द आने लगी ?” ऐसी ही एक घटना वंशी धारण कराने की है। एक बार व्यास जी ठाकुर श्रीजुगलकिशोरजीजी के कर कमलों में जिस वंशी को धारण कराना चाहते थे, वह मोटी होने के कारण उनके हाथ में नहीं आ पा रही थी। बार-बार प्रयत्न करने पर भी जब ये उस कार्य में सफल नहीं हुए, तो वंशी को वहीं रखकर ये मन्दिर से बाहर आ गये। कुछ समय बाद मन्दिर में जाकर इन्होंने देखा कि ठाकुर जी वही वंशी धारण किये हुए मुस्करा रहे हैं।
इसी प्रकार एक बार वंशी धारण कराते समय ठाकुर श्रीजुगलकिशोरजी की कोमल अँगुली छिल गई, जिससे व्यास जी को बहुत वेदना हुई। इन्होंने तत्काल ही एक वस्त्र को जल में भिंजोकर पट्टी के रूप में बाँध दिया। बताते हैं कि आज भी ठाकुर श्रीजुगलकिशोरजी के मन्दिर में पट्टी बाँधने की परम्परा विद्यमान है।
श्री व्यास जी जाति तथा ब्राह्मणत्व से ऊपर उठकर श्रीहिताचार्य चरण द्वारा बतलाये गये प्रेम-धर्म किंवा अनन्य-धर्म में परिनिष्ठित हो गये थे। इन्होंने कहा है-
जाकी है उपासना, ताही की वासना, ताही कौ नाम-रूप-गुन लै गाइये। यहै अनन्य धर्म परिपाटी, वृन्दावन बसि अनत न जाइये ॥ सोइ व्यभिचारी आन कहै आन करै, ताकौ मुख देखें दारुन दुख पाइये। व्यास होय उपहास त्रास किये, आस अछत कत दास कहाइये ॥