हमारें माई स्यामा जू कौ राज |
जाके अधीन सदाई साँवरौ या ब्रज कौ सिरताज ||
यह जोरी अविचल वृन्दावन नाहिं आन सों काज |
श्री विट्ठल विपुल बिहारिनि के बल दिन जलधर ज्यौ गाज ||
– श्री विठ्ठल विपुल देव जी महाराज, श्री विट्ठल विपुल देव जी की वाणी (27)
हमारी माई (सखी) श्री श्यामा जू का नित्य राज है। रसिकों के सिरमौर और ब्रज के राजा, श्री कृष्ण भी सदैव जिनके अधीन रहते हैं, वे श्री राधा ही हैं। श्री राधा-कृष्ण की यह दिव्य जोड़ी नित्य वृंदावन में विहार करती है, मानो उनके जीवन का और कोई उद्देश्य न हो। इनका संपूर्ण जीवन अपनी सखियों को दिव्य प्रेमरस में लीन करने के लिए ही है। श्री विट्ठल विपुल देव जी के अनुसार, उन्हें भी अपनी प्रियतम, श्री राधारानी के बल पर ही यह अनंत विहार रस प्राप्त होता है।
इस पद में उस सहज आनंद और निश्चिंतता का वर्णन है जो श्री राधारानी के चरण कमलों में आश्रित होने से प्राप्त होती है। जैसे श्री कृष्ण भी राधा के अधीन रहते हैं, वैसे ही यह भाव प्रकट करता है कि जो भी उनकी शरण में जाता है, वह निश्चिंत और मुक्त हो जाता है। यह वाक्यांश “हमारी माई श्री श्यामा जू का नित्य राज है”—इसमें उस प्रेम भक्ति का प्रकट होना है, जहां शरणागत होने से कोई और चिंता या बोझ नहीं रहता, सिर्फ प्रेमरस में डूबने की खुशी ही शेष रह जाती है।
श्री राधा और श्री कृष्ण का यह नित्य विहार उस असीम स्वतंत्रता का प्रतीक है, जहां बस प्रेम और आनंद ही सबकुछ है। श्री राधारानी सदा अपने प्रिय श्री श्यामसुंदर के साथ रस में निमग्न रहती हैं, और उनकी सखियाँ उस दिव्य रस का नित्य मधुप की भांति आस्वादन करती रहती हैं। यही भाव शरणागतों के जीवन में भी आता है—राधारानी के चरणों में रहते हुए, समर्पित जीव केवल उनके प्रेम में ही मग्न हो जाता है, और बाकी सब नश्वर चिंताएं विलुप्त हो जाती हैं।
श्री विट्ठल विपुल देव जी ने इस रस को अपनी वाणी में सुंदर रूप से व्यक्त किया है। उनके अनुसार, उन्हें नित्य इस प्रेममयी विहार का रस, श्री राधारानी की कृपा से ही प्राप्त होता है। यह उस निश्चिंतता और स्वतंत्रता का भाव है, जो सिर्फ उनकी शरण में जाकर ही महसूस किया जा सकता है—जैसे बादलों की गड़गड़ाहट में एक शक्ति और पूर्णता होती है, वैसे ही उनके चरणों में आत्मसमर्पण करने से वह अनंत बल और रस प्राप्त होता है।
यह सर्वोच्च प्रेम रस है जो हमें वृंदावन रस चर्चा के माध्यम से प्राप्त होता है। यह रस इतना दुर्लभ है कि इसे भगवान शिव, ब्रह्मा या मुनि भी प्राप्त नहीं कर सकते, जैसा कि श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज ने अपने सत्संग में बताया।