Vrindavan Ras Charcha

श्री हरिवंश महाप्रभु जी का जीवन चरित्र

shree hit harivansh mahaprabhu ji ki jeevani

श्री हित हरिवंश चंद्र महाप्रभु जी का जीवन परिचय​

परिचय :

राधावल्लभ संप्रदाय के गोस्वामी श्री हित रूपलाल जी ने अपने सहचरी वपु से श्री श्यामा श्याम की एक लीला का दर्शन किया, जिसे वे स्वयं वर्णन कर रहे हैं –

रास मध्य ललिता जु प्रार्थना जु कीनी।

कर ते सुकुमारी प्यारी वंशी तब दिनी।।

श्री श्यामाश्याम की नित्य निभृत निकुंज लीला का रस अनवरत बरस रहा है । एक समय श्री श्यामा जू की प्रधान सखी श्री ललिता जू ने विचार किया की “यह दिव्य मधुर रस धरा धाम पर मनुष्य मात्र के लिए कैसे सुलभ हो ।” ऐसा विचार कर श्री ललिता जू ने महारास के मध्य श्री स्वामिनी जू की ओर प्रार्थनामयि दृष्टि से देखा । श्री श्यामा जू ने श्री श्यामसुंदर की ओर मधुर चितवन भरी दृष्टि से देखा तो श्री श्यामसुंदर श्री श्यामा जू के ह्रदय की बात समझ गए और प्रेमरस रसास्वादन कराने वाली अपनी वंशी को श्री श्यामा जू के कर कमलों के दे दिया । प्यारी जू ने वंशी को ललिता जू को दिया और कहा “हे ललिते, आप और ये वंशी दोनों मिलकर हमारे नित्य विहार रस को प्रकाशित करो ।” प्यारी जू की वह वंशी श्री हित हरिवंश महाप्रभु के रूप में ब्रज मंडल में श्री राधारानी के ग्राम रावल के निकट बाद ग्राम में प्रकट हुई और तीनो लोकों में इस दिव्य मधुर नित्य विहार रस का विस्तार किया । श्री ललिता जू श्री स्वामी हरिदास जू के रूप में वृन्दावन के राजपुर ग्राम में प्रकट हुए ।

Shree Hit harivansh Mahaprabhu ji

भूमिका :

उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में एक ग्राम है देववन, जहाँ  श्री तपन मिश्र के पुत्र, ज्योतिष के परम विद्वान्, यजुर्वेदीय, कश्यप गोत्रीय, गौड़ ब्राह्मण श्री व्यास मिश्र जी निवास करते थे ।

व्यास मिश्र उस समय के प्रसिद्ध ज्योतिषी थे और इस विद्या के द्वारा उन्होंने प्रचुर संपत्ति प्राप्ति की थी । धीरे-धीरे उनकी ख्याति तत्कालीन पृथ्वीपति के कानों तक पहुँची और उसने बहुत आदर सहित व्यास मिश्र को बुला भेजा । व्यास मिश्र बादशाह से चार श्रीफल लेकर मिले । बादशाह उनसे बातचीत करके उनके गुणों पर मुग्ध हो गया और उनको ‘चार हजारी की निधि’ देकर सदैव अपने साथ रखने लगा । व्यास मिश्र की समृद्धि का अब कोई ठिकाना नहीं रहा और वे राजसी ठाट-बाट से रहने लगे ।

व्यास मिश्र के पूर्ण सुखी जीवन में एक ही प्रबल अभाव था । वे निस्संतान थे । इस अभाव के कारण वे एवं उनकी पत्नी तारारानी सदैव उदास रहते थे । व्यास मिश्र जी बारह भाई थे जिनमें एक नृसिंहाश्रम जी विरक्त थे । नृसिंहाश्रम जी उच्चकोटि के भक्त थे, एवं लोक में उनकी सिद्धता की अनेक कथायें प्रचलित थीं । विरक्त होते हुए भी इनका व्यास जी से स्नेह था और कभी-कभी यह उनसे मिलने आया करते थे ।

एक बार मिश्र-दंपति को समृद्धि में भी उदास देख कर उन्होंने इसका कारण पूछा । व्यास मिश्र ने अपनी संतान हीनता को उदासी का कारण बताया और नृसिंहाश्रम जी के सामने ‘परम भागवत रसिक अनन्य’ पुत्र प्राप्त करने की अपनी तीव्र अभिलाषा प्रगट की । नृसिंहाश्रम जी ने उत्तर दिया “भाई, तुम तो स्वयं ज्योतिषी हो । तुमको अपने जन्माक्षरों से अपने भाग्य की गति को समझ लेना चाहिये और संतोष-पूर्ण जीवनयापन करना चाहिये ।”

यह सुनकर व्यास मित्र तो चुप हो गए, किन्तु उनकी पत्नी ने दृढ़ता-पूर्वक पूछा “यदि सब कुछ भाग्य का ही किया होता है, यदि विधि का बनाया विधान ही सत्य है, तो इसमें आपकी महिमा क्या रही ?” इस बार नृसिंहाश्रम जी उत्तर न दे सके और विचारमग्न होकर वहाँ से चले गये ।

एकान्त वन में जाकर उन्होंने अपने इष्ट का आराधन किया और उनसे व्यास मिश्र की मनोकामना पूर्ण करने की प्रार्थना की । रात्रि को स्वप्न में प्रभु ने उनको सन्देश दिया कि “तुम्हारे सत्संकल्प को पूर्ण करने के लिये स्वयं हरि अपनी वंशी सहित व्यास मिश्र के घर में प्रगट होंगे ।” नृसिंहाश्रम जी ने यह सन्देश व्यास मिश्र को सुना दिया और इसको सुनकर मिश्र-दम्पति के आनन्द का ठिकाना नही रहा ।

जन्म :

बादशाह व्यास मिश्र जी को सर्वत्र अपने साथ तो रखता ही था । श्री हित हरिवंश के जन्म के समय भी व्यास मिश्र अपनी पत्नी-सहित बादशाह के साथ थे और ब्रजभूमि में ठहरे थे । वहीं मथुरा से 5 मील दूर ‘बाद’ नामक ग्राम में वैशाख शुक्ला एकादशी सोमवार सम्वत 1559 में अरुणोदय काल में श्रीहित हरिवंश का जन्म हुआ । महापुरुषों के साथ साधारणतया जो मांगलिकता संसार में प्रगट होती है, वह श्री हित हरिवंश के जन्म के साथ भी हुई और सब लोगों में अनायास धार्मिक रुचि, पारस्परिक प्रीति एवं सुख-शान्ति का संचार हो गया । ब्रज के वन हरे-भरे हो गए, लताओं में पुष्प खिलने लगे, सूखे सरोवर जल से भर गए, वातावरण में सुगन्धि व्याप्त हो गयी, आकाश में बिजली चमकने लगी, हलकी-हलकी बारिश की बूंदे गिरने लगी, वातावरण सुहावना हो गया, ब्रजवासियों के ह्रदय अकस्मात ही प्रेम एवं हर्ष से भर गए, पक्षीगण मधुर कलरव करने लगे, मोर नृत्य करने लगे ।

Balak Harivansh Mahaprabhu Ji with mother Tara rani and Father vyas Mishra Ji

श्री राधा सुधा निधि जी का प्राकट्य :

जब श्री हिताचार्य 6 मास के थे तब उनके मुख से संस्कृत के श्लोक उद्धृत होने लगे, जिसे वहां उपस्थित श्री नृसिंहाश्रम जी ने श्रवण किया । वह कोई साधारण श्लोक नहीं थे, अपितु श्री श्यामाश्याम की दिव्य निकुंज लीला से सम्बंधित थे । ऐसा बहुत दिनों तक होता रहा और जब श्लोकों की संख्या 270 पहुंची तो श्री हिताचार्य के मुख से श्लोक उद्धृत होना बंद हो गया । उन समस्त 270 श्लोकों को श्री नृसिंहाश्रम जी ने ग्रन्थ में लिपिबद्ध कर लिया जिसका नाम “श्री राधासुधानिधि” हुआ ।

Baal Swaroop of shree hit harivansh Mahaprabhu ji

शैशव क्रीड़ा :

श्री हित हरिवंश के पिता श्री व्यास जी ब्रज दर्शन के उद्देश्य से आये थे । अतः उन्होंने ब्रज में छह महीने निवास कर दिव्य लीला स्थलों के दर्शन किये और देववन चले गये । नामकरण के समय ज्योतिषियों ने बतलाया था कि यह बालक अनेक अद्भुत कर्म करने वाला होगा । उनकी भविष्य वाणी बालक की जन्म कुण्डली पर आधारित थी अतः वह सम्पूर्णतः सत्य भी हुई । बालक हरिवंश के उन शैशव कालीन अनेक चमत्कार पूर्ण कार्यों का वर्णन रसिकजन प्रणीत अनेक चरित्र ग्रन्थों में मिलता है । श्री हिताचार्य समवयस्क कुमारों के साथ साधारण बाल क्रीड़ा करते देखकर ज्ञानू नामक भक्त को ज्योतिषियों की बात पर अविश्वास होने लगा था अतः वह अपना सन्देह दूर करने के उद्देश्य से एक दिन बालक हरिवंश की परीक्षा लेने गया किन्तु उसे श्री हिताचार्य ने अपनी बाल क्रीड़ा में ही श्यामा-श्याम की कुंज केलि के प्रत्यक्ष दर्शन करा दिये और वह देह त्याग कर निकुंज महल में सम्प्रविष्ट हो गया ।

श्री नवरंगीलाल जी का प्राकट्य :

एक दिन रात्रि में हित हरिवंश को श्रीजी ने आज्ञा दी की “बाग़ में एक कुंआ है जिसमे हमारा एक द्विभुज स्वरुप है जो कर में बांसुरी लिए हुए हैं, उन्हें मेरी गादी संग स्थापित कर सेवा करो ।” दूसरे दिन श्री हरिवंश जी कुएँ में कूद पड़े और वहाँ से श्याम वर्ण द्विभुज मुरलीधारी एक श्री विग्रह निकालकर ले आये । उन्होंने उस विग्रह को श्रीराधा की गद्दी के साथ एक नव निर्मित मन्दिर में विराजमान करके विधि निषेध शून्य अपनी मौलिक सेवा पद्धति का शुभारम्भ किया । बालक हरिवंश ने उस विग्रह का नाम ‘नवरंगीलाल’ रक्खा; जो अद्यापि देववन नगरस्थ मन्दिर में विराजमान है । इस घटना का स्मारक वह कुंआ भी ‘हरिवंश चह’ के नाम से विख्यात आज भी देखा जाता है । यह घटना तब की है जब श्री हिताचार्य की आयु सात वर्ष की थी ।

Navrangi lal ji or Shree hit harivansh ji

शिक्षा :

श्री हिताचार्य को किन-किन विद्वानों से कब और किन-किन शास्त्रों की शिक्षा हुई यह अज्ञात है । किन्तु इनके द्वारा विरचित ‘हित चौरासी’ और ‘स्फुट वाणी’ नामक ब्रजभाषा ग्रन्थ तथा ‘राधासुधानिधि‘ एवं ‘यमुनाष्टक‘ जैसी संस्कृत कृतियों से ज्ञात होता है कि उन्हें संस्कृत व्याकरण, साहित्य, संगीत, ज्योतिष तथा श्रुति पुराणादिकों की सर्वोच्च शिक्षा प्राप्त हुई होगी । उनकी चारों कृतियाँ ही इस तथ्य को प्रमाण बनाती हैं ।

गुरुवर व मन्त्र प्राप्ति :

रसिकों द्वारा विरचित चरित्र ग्रन्थों व वाणी ग्रन्थों के अनुसार श्री हिताचार्य को उनकी स्वेष्ट श्रीराधा ने मंत्र प्रदान किया था ।

एक दिवस सोवत सुख लह्यौ । श्री राधे सुपने में कह्यौ ॥

द्वार तिहारे पीपर जो है । ऊँची डार सबनि में सोहै ॥

तामै अरुन पत्र इक न्यारौ । जामें जुगल मंत्र है भारौ ॥

लेहु मंत्र तुम करहु प्रकाश । रसिकजननि की पुजवहु आश॥

– श्री हित चरित्र, उत्तमदास जी

व्यासनंदन व्यासनंदन व्यासनंदन गाइये । 

तिनको पिय नाम सहित मन्त्र दियौ श्री राधे । 

सत-चित-आनंद रूप निगम अगम साधे ॥

– श्री हित रूपलाल जी

स्वयं श्री हिताचार्य ने अपनी ‘राधासुधानिधि‘ नामक रचना में अनेक स्थलों पर श्री राधा को अपनी इष्ट के साथ ही गुरु रूप में भी स्मरण किया है ।

यस्याः कदापि वसनाञ्चल खेलनोत्थ, धन्याति धन्य पवनेन कृतार्थ मानी ।

योगीन्द्र दुर्गम गतिर्मधुसूदनोपि, तस्या नमोस्तु वृषभानु भुवनोदिशेऽपि ॥

रहौ कोउ काहू मनहि दिए। 

मेरे प्राणनाथ श्रीश्यामा शपथ करौं तृण छिये ॥

एक दिन श्री हिताचार्य रात्रि में सो रहे थे, तब श्री राधा ने स्वप्न में आदेश दिया “तुम्हारे घर के सामने जो पीपल का वृक्ष है, उसकी सबसे ऊँची डाल पर एक अद्भुत अरुण पत्र है, उसमें हमारा युगल मन्त्र है, उसे ग्रहण कर उसका रसिकजनों में प्रकाश करो ।

इस आदेश को पाकर श्री हिताचार्य ने सुबह उस अरुण पत्र को पीपल वृक्ष की डाल से उतार कर उसका रसिकजनों में प्रकाश किया ।

श्री हरिवंश जी को श्री राधा के द्वारा “हित” छाप प्रदान करना :

जब श्री हिताचार्य देववन में निवास करते थे, तब श्री राधा ने स्वयं प्रकट होकर श्री हिताचार्य को “हित” छाप प्रदान किया था । तभी से श्री हिताचार्य का नाम हित हरिवंश हो गया । “हित” का अर्थ है प्रेम ।

रसमय करे चरित परशंश । जगगुरु विदित श्री हरिवंश ॥

श्री राधा अनुग्रह कियौ । श्री मुख मंत्र निजु कर दियौ ॥

दयिता कृष्ण जिनके इष्ट । पुनि गुरु भाव प्रीति गरिष्ट ॥

दीनी रीझ हित की छाप । ता करि बढ्यौ भक्ति प्रताप ॥

– चाचा वृन्दावन दास जी

Shree hit harivansh ji in nitya leela

उपनयन संस्कार, विद्याध्ययन और विवाह :

आठ वर्ष की आयु में श्री हिताचार्य का उपनयन संस्कार हुआ । इस आयु मे इनकी बुद्धि सामान्य बालकों से कहीं अधिक तीव्र और धारणाशक्ति चमत्कारी थी । इन्होंने अपने स्नेह और सौजन्य से शैशव में ही अपने चारो ओर अच्छा-खासा सखा-मण्डल स्थापित कर लिया था । इन बाल-सखाओं के साथ इनकी क्रीडाएँ असाधारण होती थी । प्रायः भगवद्भक्ति के आश्रित ही कोई न कोई खेल यह खेलते थे । ठाकुर जी की सेवा-पूजा करने की ओर भी इनकी नैसर्गिक रुचि थी और इन्होंने महाप्रसाद का माहात्म्य शैशव में ही अपने बाल सखाओं के समक्ष वर्णन किया था । एकादशी व्रत के प्रति इनका विलक्षण भाव इसी आयु में व्यक्त हो गया था । शनै शनै अपनी अनन्य भावना और सेवा-पूजा के कारण इनकी ख्याति समीपवर्ती प्रदेश में हुई और इनके पास रसपिपासुओं  का आगमन होना प्रारम्भ हुआ । इस आयु में इन्होंने जो चमत्कार किए उनका वर्णन साम्प्रदायिक वाणी-ग्रंथों में भरा पड़ा है ।

Shree harivansh ji with Family

सोलह वर्ष की आयु में श्री हिताचार्य का विवाह रुक्मिणी देवी के साथ सम्पन्न हुआ । गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने पर भी इन्होंने अपनी धार्मिक निष्ठा में परिवर्तन नही किया । गृहस्थाश्रम के समस्त कर्त्तव्यों का पालन करते हुये ये सच्चे रूप में भक्त और सन्त बने रहे । इस जीवन के प्रति इनके मन मे न तो वैराग्य भावना थी और न इसके प्रति किसी प्रकार का हीन भाव ही ये रखते थे । इनका दाम्पत्य-जीवन सुखी-सम्पन्न और आदर्श था । सर्व प्रकार के ऐश्वर्य एवं भोगविलास की सामग्री इनके पास थी किन्तु इनकी भावना में उसके लिये किसी प्रकार की आसक्ति न होने से उसको लेकर ये कभी व्यग्र, विचलित या लिप्त न होते थे ।

श्रीमती रुक्मिणी देवी से श्री हिताचार्य के एक पुत्री और तीन पुत्र उत्पन्न हुए । ज्येष्ठ पुत्र श्री वनचंद्रजी स० 1585, द्वितीय पुत्र श्री कृष्णचंद्रजी संवत् 1587, तृतीय पुत्र श्री गोपीनाथजी सवत् 1588 तथा पुत्री साहिब दे सम्वत् 1589 मे उत्पन्न हुई । श्री हरिवंशजी की माता तारारानी का 1589 में तथा पिता श्री व्यास मिश्र का निकुंजगमन 1590 सम्वत् में हुआ । माता-पिता की मृत्यु के उपरान्त श्री हरिवंशजी के मन में यह भाव आाया कि किसी प्रकार भगवान् की लीलास्थली में जाकर वहाँ की रसमयी भक्ति-पद्धति में लीन होकर जीवन सफल करें । उसी समय इनकी ख्याति से प्रभावित होकर तत्कालीन राजा ने इनको अपने दरबार में बुलाने के लिये सादर निमंत्रण भेजा किन्तु इन्होंने अपने अन्तर्मन में भगवान् की लीलाभूमि का निमंत्रण स्वीकार कर लिया था इसलिये राजा के निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया । और एक श्लोक में यह उत्तर भिजवा दिया कि सृष्टि के आदि से नरेन्द्र-सुरेन्द्र, ब्रह्मा आदि कालग्रसित होते आये हैं अतः हरिचरण में लीन होकर उनका ही ध्यान करना अभीष्ट है ।

श्री राधारानी द्वारा वृंदावन जाने की आज्ञा और श्रीराधावल्लभ जी विग्रह की प्राप्ति

भगवान श्री कृष्ण के वंशी के अवतार श्री हितहरिवंश महाप्रभु जी को देवबंद में स्वयं श्री राधाजी से निज मंत्र और उपासना पद्धति की प्राप्ति हुई। श्री राधा जी ने एक दिन महाप्रभु जी को स्वप्न में वृन्दावन वास की आज्ञा प्रदान की। उस समय श्री महाप्रभु जी की आयु ३२ वर्ष की थी।

महाप्रभु जी ने अपने पुत्रों और पत्नी से चलने के लिए पूछा, परंतु उनकी रुचि किंचित संसार में देखी। श्री महाप्रभु जी अकेले ही श्री वृन्दावन की ओर भजन करने के हेतु से चलने लगे। कुछ बाल्यकाल के संगी मित्र थे, जिन्होंने कहा कि हमारी भी साथ चलने की इच्छा है – हम आपके बिना नहीं रह सकते। श्री महाप्रभु जी ने उनको भी साथ ले लिया।

रास्ते में चलते-चलते सहारनपुर के निकट चिडथावल नामक एक गांव में विश्राम किया। स्वप्न में श्री राधारानी ने महाप्रभु जी से कहा – यहाँ आत्मदेव नाम के एक ब्राह्मण देवता विराजते हैं। उनके पास श्री राधावल्लभ लाल जी का बड़ा सुंदर श्रीविग्रह है – उस विग्रह को लेकर आपको श्री वृन्दावन पधारना है, परंतु उन ब्राह्मणदेव का प्रण है कि यह श्रीविग्रह वे उसी को प्रदान करेंगे जो उनकी २ कन्याओं से विवाह करेगा। उनकी कन्याओं से विवाह करने की आज्ञा श्री राधा रानी ने महाप्रभु जी को प्रदान की।

द्वै कन्या सो तुमको दै है, अपनो भाग्य मानी वह लै है।। तिनको पाणिग्रहण जु कीजौ, भक्ति सहायक ही मानि लिजौ। तिहि ठां और एक मम रूप, द्विज लै मिलि है परम अनूप।। ताकौ लै वृन्दावन जैहौ, सेवन करि सबकौ सुख दैहौं।

महाप्रभु जी संसार छोड़ कर चले थे भजन करने परंतु श्री राधा जी ने विवाह करने की आज्ञा दी। महाप्रभु जी स्वामिनी जी की आज्ञा का कोई विरोध नहीं किया – वे सीधे आत्मदेव ब्राह्मण का घर ढूंढकर वहां पहुंचे। श्री राधारानी ने आत्मदेव ब्राह्मण को भी स्वप्न में उनकी कन्याओं का विवाह श्री महाप्रभु जी से सम्पन्न करा देने की आज्ञा दी। आत्मदेव ब्राह्मण के पास यह श्री राधावल्लभ जी का विग्रह कहाँ से आया? इस पर संतो ने लिखा है –

आत्मदेव ब्राह्मण के पूर्वजो ने कई पीढ़ियो से भगवान शंकर की उपासना करते आ रहे थे। आत्मदेव ब्राह्मण के किसी एक पूर्वज की उपासना से भगवान श्री शंकर प्रसन्न हो गए और प्रकट होकर वरदान मांगने को कहा। उन पूर्वज ने कहा – हमें तो कुछ माँगना आता ही नहीं, आपको जो सबसे प्रिय लगता हो वही क्रिया कर के दीजिये। भगवान शिव ने कहा “तथास्तु”। भगवान शिव ने विचार किया कि हमको सबसे प्रिय तो श्री राधावल्लभ लाल जी हैं। कई कोटि कल्पो तक भगवान शिव ने माता पार्वती के सहित कैलाश पर इन राधावल्लभ जी के श्रीविग्रह की सेवा करते रहे।

भगवान शिव ने सोचा कि राधावल्लभ जी तो हमारे प्राण सर्वस्व हैं, अपने प्राण कैसे दिए जाएं परंतु वचन दे चुके हैं सो देना ही पड़ेगा। भगवान शिव ने अपने नेत्र बंद किये और अपने हृदय से श्री राधावल्लभ जी का श्रीविग्रह प्रकट किया। उसी राधावल्लभ जी का आज वृन्दावन में दर्शन होता है। श्री हरिवंश महाप्रभु जी का विधिवत विवाह संपन्न हुआ और श्री राधावल्लभ जी का विग्रह लेकर महाप्रभु जी अपने परिवार परिकर सहित वृन्दावन आये। कार्तिक मास में श्री वृन्दावन में महाप्रभु का पदार्पण हुआ, यमुना जी के किनारे मदन टेर नामक ऊंची ठौर पर एक सुंदर लाता कुंज में कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी को श्री राधावल्लभ जी को सविधि अभिषेक करके विराजमान किया और उनका पाटोत्सव मनाया।Shree Hit harivansh ji maharaj

नरवाहन पर कृपा

वृन्दावन में उस समय नरवाहन नाम के क्रूर भील राजा का आधिपत्य था। उसके पास कई सैनिक और डाकुओं की फौज थी, ये यमुना तट पर स्थित भैगांव के निवासी थे। लोदी वंश का शासन सं १५८३ में समाप्त हो जाने के बाद दिल्ली के आस पास कुछ समय तक अराजकता (केंद्र में किसी का पक्का शासन न होना) की स्थिति रही थी। इस काल में नरवाहन ने अपनी शक्ति बहुत बढ़ा ली थी और सम्पूर्ण ब्रज मण्डल पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था। आसपास के नरेश तो इनसे डरने ही लगे थे, दिल्लीपति बादशाह भी उससे भय खाते थे अतः इस क्षेत्र में कोई नहीं आता था। वृन्दावन उस समय एक घना जंगल था जहां हिंसक पशु रहते थे, जहां सूर्य की किरणें भी पृथ्वी पर नहीं आती थी।

दर्शन करने वाले भक्त दूर से ही उस वन को प्रणाम करते थे। श्रीचैतन्य महाप्रभु के कृपापात्र कुछ बंगाली संत यहाँ बसने की चेष्टा कर रहे थे, किन्तु डाकुओं के आतंक से यहाँ जम नहीं पा रहे थे। इसी काल में सं १५९१ में श्रीहित हरिवंश महाप्रभु श्री राधा वल्लभजी के विग्रह एवं अपने परिवार परिकर सहित वृन्दावन पधारे और ब्रजवासियों से भूमि लेकर श्री वृन्दावन में निवास करने लगे।

नरवाहन के सेनापति ने एक दिन महाप्रभु जी को भगवान की सेवा करते देखा और सोचा कि इस सघन वन में अपने परिवार सहित रहने वाला यह कौन व्यक्ति है? ऐसे सघन वन में कोई अपने परिवार सहित भजन करने क्यों आएगा? यहाँ क्या उसे प्राणों का भय नहीं है? क्रोध में भरकर सेनापति उनके निकट गया परंतु निकट आने पर सेनापति का क्रोध शांत हो गया, उसने परम शांति का अनुभव किया। सेनापति ने जाकर यह बात नरवाहन को बताई।

सेनापति ने कहा – महाराज! एक सद्गृहस्थ व्यक्ति अपने परिवार, धन-संपत्ति और भगवान का श्रीविग्रह लेकर ऊंची ठौर पर बसने आया है। नरवाहन ने कहा – क्या तुम बुद्धिहीन हो, कि तुम्हें इतना भी नहीं पता कि ऐसे सघन वन में कोई धन-संपत्ति लेकर क्यों आएगा जहां हमारे सैनिकों द्वारा उसके धन को छीना जा सकता है? जिस वन में हमें भी सशस्त्र जाना पड़ता है, उस वन में क्या कोई भजन करने आएगा? वह कोई संत नहीं है, वह तो दिल्लीपति बादशाह का कोई गुप्तचर (जासूस) होगा।

हमारे बल की थाह पाने आया होगा। तुमने उसे यहां से बाहर निकाला क्यों नहीं? सेनापति ने कहा – मैं सशस्त्र क्रोध में भर कर गया तो था परंतु वह इतना सुंदर है कि उसके निकट जाते ही मेरा क्रोध चला गया, मैं कुछ कहने-सुनने की स्थिति में नहीं रह पाया। नरवाहन क्रोध में भरकर सशस्त्र सैनिकों के साथ मदन टेर पर पहुंचे, उस समय महाप्रभु जी मुख्य द्वार की ओर पीठ करके बैठे हुए थे और अपने परिकर के साथ दिव्य वृन्दावन के स्वरूप की चर्चा कर रहे थे।

नरवाहन ने अभी महाप्रभु जी के मुख का दर्शन भी नहीं किया था, केवल महाप्रभु जी की पीठ का दर्शन करते ही सम्मोहित हो गया। हाथ से तलवार छूट गयी और उस दिव्य चर्चा को सुनता ही रह गया। आंखों से झरझर अश्रुओं की धार बह रही थी। महाप्रभु जी ने घूम कर नरवाहन को देखा और उस समय नरवाहन को ऐसा लग रहा था कि वे किसी घोर निद्रा से धीरे-धीरे जाग रहे हैं और उनके चारों ओर एक अद्भुत प्रकाश फैलता जा रहा है, जो अत्यन्त सुहावना और शक्तिदायक है।

उसको अपने पिछले हिंसापूर्ण कृत्यों पर पश्चाताप होने लगा। महाप्रभु जी ने कहा – मूर्ख! निरंतर कुत्सित क्रूर कर्म करने से तेरी बुद्धि पर आवरण पड़ा है। ये देख, वृन्दावन के राजा-रानी तो यहाँ बैठे हैं। एक बार इस रूप सुधा का पान तो कर। श्री हिताचार्य ने इनकी ओर करुणार्द्र दृष्टि से देखा और महाप्रभु जी की कृपा से श्री राधा-कृष्ण और दिव्य वृन्दावन के साक्षात दर्शन हो गए। इन्होने अपना मस्तक महाप्रभु जी के चरण

नवीन सिद्धांत एवं स्वेष्ट-सेवा-संस्थापना :

श्री हिताचार्य के परमोपास्य षटैश्वर्य सम्पन्न भगवान नहीं थे; प्रत्युत कोटि ब्रह्म ऐश्वर्य के परकोटे के अन्तर्गत किन्तु उससे दूर पूर्ण माधुर्य मूर्ति, रस-रसिक, अद्वय युगल किशोर थे । भगवान की सेवा पूजा वैदिक विधान द्वारा ही संविधेय होती है किन्तु माधुर्य मूर्ति, ‘प्रेम’ किंवा ‘रस’ विग्रह श्री राधावल्लभलाल जी की सेवा प्रीति-विधान से ही सम्भव थी । अतः श्री हिताचार्य ने अपने स्नेह भाजन श्रीराधाबल्लभलाल जी का अहर्निशि समयानुरूप अनेक प्रकार से लाड़-दुलार प्यार किया । इस लाड़-प्यार को ही उन्होंने सात भोग और पाँच आरती वाली विधि निषेध शून्य ‘अष्टयामी सेवा’ तथा वर्ष में आने वाले ऋतु उत्सवों (वसन्त, होली, होरीडोल, जलबिहार, पावस, झूला और आदि) की ‘उत्सविक सेवा‘ का सुरम्य रूप प्रदान किया । साथ ही अपने आचरणों एवं वाणी द्वारा दैनिक स्वेष्ट की मानसी सेवा करने का भी मूर्त विधान दिया ।

Shree Hit harivansh ji maharaj with shishyas

सिद्ध केलिस्थलों का प्राकट्य :

श्री हिताचार्य ने ऐसे वृन्दावन का प्रागट्य किया था जोकि भूतलस्थ होते हुए भी ‘देवानामथ भक्त-मुक्त’ और श्री कृष्ण के लीला परिकर के लिए भी दुर्लक्ष्य था । इसीलिए यह वृन्दावन परम रहस्य संज्ञक बना रहा और बना रहेगा । ऐसे वृन्दावन में होने वाली लीलायें और लीला स्थलों का प्रागट्य भी अनेक दृष्टियों से अनिवार्य था । अतः श्री हिताचार्य ने उन लीला स्थलों का भी प्रागट्य किया जिनका उल्लेख श्रीमद्भागवत आदि पुराणों में नहीं है । इन लीला स्थलों का प्रागट्य ही पंचकोसी वृन्दावन का प्रागट्य है और जो रहस्य रूप वृन्दावन के परिचय प्रदाता तथा प्रत्यक्ष प्रतीक हैं । पंचकोसी वृन्दावन में उनके द्वारा प्रकटित लीला स्थल हैं-रासमण्डल, सेवाकुंज, वंशीवट, धीरसमीर, मानसरोवर, हिंडोल स्थल, शृंगारवट और वन विहार

नमो जयति जमुना वृन्दावन ।

नमो निकुंज कुंज सेवा, हित मण्डल रास, डोल, आनंदघन ॥

नमो पुलिन वंशीवट, रसमय धीरसमीर, सुभग भुव खेलन ।

नमो-नमो जै मानसरोवर सुख उपजावन दंपति के मन ॥

नमो-नमो दुम बेली खग-मृग जे-जे प्रगट गोप्य श्री कानन ।

नमो जयति हित स्वामिनि राधा अलबेली अलबेलौ मोहन ॥

– श्री अलबेलीशरण जी

नित्य रासलीलानुकरण प्रागट्य :

प्रेम किंवा रस मूर्ति श्यामा-श्याम प्रकृतितः रास और विलास प्रिय हैं । रास और विलास प्रियता इनके स्वरूप की प्रकट प्रतीक है । इसीलिए श्री हिताचार्य इन्हें आशीर्वाद देते हुए कहते हैं कि रास-विलास के साथ यह जोरी सदा विराजमान रहे –

नव निकुंज अभिराम श्याम सँग नीको बन्यो है समाज । 

जै श्री हित हरिवंश विलास रास जुत जोरी अविचल राजु ॥

राधाकिंकरीगण इस रास-रस का पान नेत्र- चक्षुओं द्वारा किया करती हैं । राधाकिंकरी भावानुभावितहृदय रसिकों को भी प्रत्यक्ष दर्शन द्वारा इस रास-विलास का रसास्वाद निरन्तर मिल सके इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए श्री हिताचार्य ने प्रेम मूर्ति श्यामाश्याम की इस नित्य रासलीला के अनुकरण का प्रागट्य किया । यह रासलीलानुकरण वृंदावन में होने वाले उस नाद्यन्त नित्यरास का अनुकरण था जो मुक्तजनों, भक्तजनों और गोविन्द प्रिय परिकर से सर्वथा अलक्षित है । यह भागवत वर्णित द्वापरान्त में होने वाले महारास से भिन्न उस नित्यरास का अनुकरण था जिसे केवल राधा-प्रिय किंकरीगण ही देखा करती हैं । इस रासलीलानुकरण का शुभारंभ श्री हिताचार्य ने वि. से. 1592 के लगभग पंचकोसी वृन्दावनस्थ चैन घाट (वर्तमान नाम गोविन्द घाट) में विनिर्मित रास मण्डल पर ब्रजवासी बालकों को श्यामा-श्याम व सहचरियों के वेष से सुसज्जित करके किया था ।

इसी रासमण्डल में एक समय महारास के मध्य श्री राधा के चरणों की नूपुर टूट गयी थी और वहां उपस्थित श्री हरिराम व्यास जी ने अपने यज्ञोपवीत से नूपुर गूँथ कर श्री प्रिया जी के चरणों में धारण कराया था ।

 

समाजगायन [ संगीत ]- समुद्भव :

‘प्रेम’ किंवा ‘रस’ जब उज्जृम्भित होता है तब उसमें राग की ऊर्मियाँ प्रकृतितः उच्छलित होती हैं । श्यामा-श्याम-प्रेम किंवा रस की सघन मूर्ति ही हैं । यही कारण है कि उन्हें रागालापन तथा वीणा-वंशी वादन अत्यधिक प्रिय है । कभी रसिकशेखर श्यामसुन्दर वंशी वादन के माध्यम से श्री प्रिया के साथ गायन करके उन्हें प्रसन्न करते हैं तो कभी केवल प्रिया जी अपने मधुर गायन तथा वीणा वादन-द्वारा अपने प्रियतम को आनंदित करती हैं । इसी प्रकार राग और अनुराग की राजीव मूर्तियाँ सहचरीगण भी समय-समय पर युगल के रागालाप का अनुगमन करके कभी प्रातः, कभी मध्यान्तर, उत्थापन काल में और कभी रात्रि रास में गायन-वादन करके युगलवर का मनोरंजन किया करती हैं ।

राधाकिंकरी भावानुभावित रसिक भी इसी प्रकार से रस लीलाओं के पद्यात्मक गायन द्वारा अपने इष्ट युगल को आनन्दित कर सके तथा स्वयं वृन्दावनरसानन्द का अनुभव कर सके – इस उद्देश्य से श्री हिताचार्य ने ‘समाज गायन’ की अभिनव और मौलिक गायन पद्धति का भी समुद्भव किया । यहाँ पर यह नितान्त अविस्मरणीय है कि उन्होंने सामवेद के स्वर प्रधान संगीत को अक्षर प्रधान बनाकर इस मौलिक गान पद्धति को जन्म दिया और रस लीला संबंधी गेय पदों को एक धुन विशेष में आबद्ध करके उन विशिष्ट ‘धुनों’ का भी आविष्कार किया; जो आज भी राधावल्लभीय समाजगान गायको के कण्ठ में परम्परा से सुरक्षित हैं ।

Shree Harivansh mahaprabhu ji

शिष्य परिकर :

रसिकाचार्य गो. हित हरिवंश जी के अनेक शिष्य हुए, उनमें से भगवत मुदित जी द्वारा रचित ‘रसिकअनन्यमाल’ में वर्णित शिष्यों का नामोल्लेख किया जाता है

इन उल्लिखित रसिकों में से श्री नरवाहन, हरिरामव्यास, छबीलेदास, नाहरमल, बीठलदास, मोहनदास, नवलदास, हरीदास तुलाधार, हरीदास जी [कर्मठी बाई के ताऊ], परमानन्ददास, प्रबोधानन्द सरस्वती, कर्मठी बाई, सेवक जी, खरगसेन, गंगा, जमुना, पूरनदास, किशोर, सन्तदास, मनोहर, खेम, बालकृष्ण, ज्ञानू, गोपालदास नागर, आदि

रचनायें :

श्री हिताचार्य द्वारा विरचित रचनायें निम्नांकित हैं –

1: श्रीराधासुधानिधि

यह एक संस्कृत काव्य है जिसकी श्लोक संख्या 270 है । इस ग्रन्थ में श्री राधाकृष्ण की विभिन्न निकुञ्ज लीलाओं का वर्णन है, संग में अभिलाषा एवं वंदना के श्लोक भी संगृहीत हैं ।

2: श्री यमुनाष्टक

श्री यमुनाष्टक संस्कृत में रचित एक अष्टक है जिसकी श्लोक संख्या 9 है । इसमें श्री यमुना जी का यश एवं उनकी वंदना का वर्णन है ।

3: श्री हित चौरासी

श्री हित चौरासी ब्रजभाषा में एक पद्य रचना है जिसमें 84 पद संकलित हैं । इस ग्रन्थ में श्री श्यामाश्याम की निकुंज लीला का वर्णन है ।

4: स्फुट वाणी

इस ग्रन्थ में ब्रजभाषा में 24 पद संकलित हैं, जिसमें सिद्धांत, आरती, श्री श्यामाश्याम की निकुंज लीला, आदि के पद हैं ।

इन 4 रचनाओं के अतिरिक्त श्री हिताचार्य जी के 2 पत्र ब्रजभाषा गद्य में रचित हैं ।

Shri harivansh Ji vrindavan radhavallabh ji

लीला संवरण :

जयकृष्ण जी ने श्री हिताचार्य का निकुंज गमन वर्णन करते हुए लिखा है कि –

श्री यमुना जी के तट पर मानसरोवर के निकट भांडीरवट है । कुसुमित ललित लतिकाओं से रमणीय इस वन स्थली में ‘भँवरनी भवन‘ नामक एक निभृत निकुंज है । इस निकुंज में श्यामा-श्याम रति रस बिहार किया करते हैं । शारदीय पूर्णिमा [आश्विन की पूर्णिमा] की चन्द्र-चन्द्रिका में रति रस बिहार के रसासव से आघूर्णित नयन श्री रसिक युगल झूम रहे थे, घूम रहे थे, उनकी श्री अंग की कान्ति चन्द्र-कान्ति को अत्यधिक कान्त बना रही थी । श्री हिताचार्य को प्रिया जी के अंग की सुगन्ध ने अपनी ओर बलात् आकर्षित किया । परिणामतः वे उस सुगन्ध के आधार से “प्रिया जी ! आप कहाँ हो ? कहाँ हो ?” यह कहते हुए उस वन में घुसते ही चले गये और थोड़ी देर में प्रिया जी की अंग-चन्द्रिका में घुल मिल गये । इस प्रकार से वि. सं. 1609 की आश्विन पूर्णिमा की रात्रि में श्री हित जी लोक-दृष्टि से ओझल हो गये ।

दिव्य कमल श्री यमुना कूल । वट भांडीर निकट रस मूल ॥

संतत जहँ भँवरन की भीर । शीतल-मन्द-सुगंध समीर ॥

जहँ बिहरत श्री रवनी-रवन । ताकौ नाम भँवरनी भवन ॥

शरद मास राका उजियारी। पूरन शशि जु प्रकाशित भारी ॥

प्रिया-जौन्ह में यौं मिलि गई । तिहि छिन सहचरि संभ्रम भई ॥

कहत कि कहाँ-कहाँ हो लली । सौंधे के डोरे लगि चली ॥

दृष्टान्तर यौं श्री हरिवंश । मानसरोवर रस के हंस ॥

भँवर भँवरनी में दोउ चलैं । श्री हित जू तिन सँग ही रलैं ॥

सम्वत सोरह सै रु नव, आश्विन पूनौ मास ।

ता दिन श्री हित जग-दृगन, कियौ अप्रगट विलास ॥

श्री हरिराम व्यास जी ने हिताचार्य के निकुंज गमन कर जाने के फलस्वरूप वृन्दावन के रसिक समाज की दुर्दशा और

अपनी हार्दिक वेदना का वर्णन किया है –

हुतौ रस रसिकन कौ आधार ।

बिनु हरिवंशहि सरस रीति कौ कापै चलिहै भार ॥

को राधा दुलरावै गावै वचन सुनावै चार ।

वृन्दावन की सहज माधुरी कहिहै कौन उदार ॥

पद रचना अब कापै ह्वै है निरस भयौ संसार ।

बड़ौ अभाग अनन्य सभा कौ उठिगौ ठाठ सिंगार ॥

जिन बिनु दिन छिन सत युग बीतत सहज रूप आगार ।

‘व्यास’ एक कुल कुमुद बन्धु बिनु उड़गन जूठौ थार ॥

Shree harivansh ji vrindavan

वृन्दावन रास चर्चा

Jai Jai Shree Radhe Shyam!

ब्रज के रसिक संत मानते हैं कि दिव्य आनंद श्रीधाम वृंदावन में है। यह वेबसाइट राधा कृष्ण की भक्ति में इस आनंद और ब्रज धाम की पवित्रता की महिमा साझा करती है|

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Rasik Triveni

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